40 सालों से डिब्बे में बंद बोधघाट परियोजना को कांग्रेस सरकार ने फिर से बाहर निकाला है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इसके पक्ष में मुखर है, इस आश्वासन के साथ कि आदिवासियों का विस्थापन से पहले पुनर्वास किया जाएगा। हसदेव अरण्य में स्थित पांच कोयला खदानों सहित छतीसगढ़ की नौ खदानें व्यावसायिक खनन हेतु नीलामी की लिस्ट में मोदी सरकार ने रख दिया है कि कॉर्पोरेट घराने आएं और यहां का बेशकीमती कोयला निर्यात के लिए खोदकर मुनाफा कमाएं। पूरे देश की 41 कोयला खदानें इस लिस्ट में शामिल हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री ने मोदी सरकार के इस कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी है, लेकिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री चुप हैं। बोधघाट के मामले में उनकी मुखरता और कोयला के व्यावसायिक खनन के मामले में उनकी चुप्पी का एक ही राज है — कॉर्पोरेट मुनाफे को सुनिश्चित करना।

समझाने की कोशिश हो रही है कि बोधघाट के उद्देश्य को अब बदल दिया गया है। पहले प्राथमिकता बिजली थी, अब सिंचाई होगी। 500 की जगह अब केवल 300 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा और 3.67 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई होगी और जो खेतों को सींचना नहीं चाहता, वह निश्चित ही आदिवासियों का भला नहीं चाहता!

अपनी-अपनी राजनीति करने के बावजूद कांग्रेस-भाजपा दोनों आदिवासियों के विस्थापन के लिए एक हो गए हैं। दोनों इस मामले में एकजुट हैं कि प्रदेश में हाशिये पर पड़े वामपंथ की आवाज धोखे से भी लोगों तक न पहुंचे। उन्हें मालूम है कि बस्तर से टाटा को पांव पीछे खींचने के लिए इसी वामपंथ ने मजबूर किया था। तब इस मुद्दे की धमक इतनी बनी थी कि भाजपा की चमक गायब हो गई थी और राहुल गांधी को चुनावी वादा करना पड़ा था कि आदिवासियों को उनकी जमीन वापस की जाएगी। लेकिन कांग्रेस का यह वादा वोट और सीटों के लिए टाटा तक ही सीमित था। क्या उसने ऐसी कोई नीतिगत घोषणा की थी कि जिस अडानी का खजाना चुनावों में कांग्रेस के लिए खुला था, उसके लिए प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों का खजाना नहीं खोला जाएगा? क्या आज तक उसने किसानों और आदिवासियों का भूमि से विस्थापन रोकने की किसी कारगर नीति की घोषणा की है? तब बोधघाट से वह परहेज क्यों करें!

40 साल पहले यह परियोजना 430 करोड़ रुपयों की थी। आज इसकी लागत 52 गुना से ज्यादा बढ़कर 22653 करोड़ रुपये पहुंच चुकी है। लागत में वृद्धि की यही रफ्तार रही और इसे पूरा होने में 10 साल भी लगे, और सिंचाई के नाम पर नहरों को बिछाने की कागजी कवायद को न भी शामिल करें, तब भी ढाई-तीन लाख करोड़ का खेल तो बनता है। इस छप्पर फाड़ खेल में सबके लिए अवसर है : कॉर्पोरेट के लिए, पेटी-कॉन्ट्रेक्टरों के लिए, राजनेताओं और अफसरों के लिए और मीडिया के लिए भी : सबके लिए! फिर इस मिले-जुले खेल की कीमत 35-40 हजार आदिवासियों का विस्थापन हो या 42 गांवों के साथ 13802 हेक्टेयर ( = 34500 एकड़) भूमि का डूबान या फिर आदिवासियों को धोखा देने के लिए आंकड़ों का फर्जीवाड़ा ही किया जाए, क्या फर्क पड़ता है!! आखिर मुनाफा कमाने का ऐसा अवसर रोज-रोज तो मिलता नहीं!

सिंचाई नहीं है प्राथमिकता

पहले सिंचाई के आंकड़ों की ही जांच-पड़ताल कर लें। सरकार का दावा है कि बस्तर के तीन जिलों — दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर — के 359 गांवों की 3.66 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि की सिंचाई की जाएगी और इसके लिए इंद्रावती के 156 टीएमसी पानी को इस परियोजना में संग्रहित किया जाएगा और इसमें से 131 टीएमसी पानी कृषि, उद्योग और पेयजल के लिए उपयोग किया जा सकेगा। कृषि के लिए आरक्षित जल की मात्रा 112 टीएमसी बताई जा रही है।

बस्तर की प्रमुख फसल धान ही है। वैज्ञानिकों के अनुसार एक एकड़ धान की खेती के लिए औसतन 10000 घन मीटर पानी की जरूरत होती है। इस प्रकार यदि 3.67 लाख हेक्टेयर यानी लगभग 9 लाख एकड़ (1 हेक्टेयर = 2.5 एकड़) जमीन को सींचना है, तो 9000 मिलियन घन मीटर या 318 टीएमसी पानी चाहिए। क्या इस सरकार से पूछा जा सकता है कि उसके कृषि और जल संसाधन विभाग के पास ऐसा कौन-सा चमत्कार है कि 3.67 लाख हेक्टेयर भूमि को 318 टीएमसी की जगह 112 टीएमसी पानी से ही सींचकर खेती करवा देगी, जबकि इतने पानी से तो केवल 1.30 लाख हेक्टेयर खेती की ही सिंचाई हो सकती है! लेकिन इन 359 गांवों में खेती की इतनी जमीन है भी?

कृषि विभाग की सांख्यिकी पर नज़र डालें, तो इन तीन जिलों के जिन 359 गांवों के सिंचाई से लाभान्वित होने का दावा किया जा रहा है, उन गांवों का सम्मिलित रकबा लगभग 5 लाख हेक्टेयर है और इन गांवों में खरीफ फसल का रकबा मात्र 80-90 हजार हेक्टेयर ही है। इतनी कृषि भूमि के लिए 70-75 टीएमसी पानी की ही जरूरत होगी। इन तीन जिलों की जैसी भौगोलिक स्थिति है, उसमें इन 359 गांवों तक नहरों का जाल भी नहीं बिछाया जा सकता, क्योंकि इसके लिए पहाड़ों को ही काटने की जरूरत होगी और ऐसा करना पर्यावरण विनाश के नए चक्र को जन्म देगा। तब बाकी पानी का क्या उपयोग होगा? साफ है कि इस परियोजना का असली उद्देश्य तो लगभग 60-70 टीएमसी पानी (जबकि कागजों में यह दिखाया जा रहा है कि उद्योगों को केवल 17-18 टीएमसी पानी ही दिया जाएगा!) और 300 मेगावॉट बिजली उद्योगों को ही देना है। सिंचाई का बहाना तो इस मकसद को ढंकने और आदिवासियों का विरोध कम करने का आवरण है। जिस क्षेत्र में नदी-नाले बरसात के पानी में उफनते हैं, दो माह आवागमन ठप्प होने की स्थिति रहती है, उस क्षेत्र में यह परियोजना ऐसे बनाई गई है, जैसे किसी मरुस्थल को सींचा जाना है।

सिंचाई के लिए बड़े बांध अवहनीय

लेकिन क्या बस्तर को सिंचाई के लिए वाकई इस परियोजना की जरूरत है? ‘द वायर’ में इरा झा की टिप्पणी है :

“बहरहाल ये बताना जरूरी है कि इस योजना से भले शहरी लोगों को भर-भर बिजली मिले और जमकर सिंचाई भी हो जाती, जिसकी कम से कम बस्तर को जरूरत ही नहीं है। बस्तर पर कुदरत खुद ही इतनी मेहरबान है कि आदिवासियों की जमीन बेहद उपजाऊ है और उसमें बिना खास जतन के वे भरपूर खुशबूदार जैविक धान, सब्जियां आदि उगा लेते हैं।प्रकृति की कृपा से ही छत्तीसगढ़ को धान का भंडार कहा जाता है। इसलिए बोधघाट पनबिजली परियोजना से आदिवासियों और जंगल के कल्याण की बात बेमानी है।” (बोधघाट पनबिजली परियोजना : जंगल उजाड़कर जंगल के कल्याण की बात, जून 18, 2020)

पूरी दुनिया का अनुभव यह बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के चलते पारिस्थितिकी और पर्यावरण में जो बदलाव आया है, उसके कारण अब बड़े बांध वहनीय नहीं रह गए हैं और मानव सभ्यता के लिए संकट का कारण बन गए हैं। बड़े बांधों की जगह अब विकेन्द्रीकृत सिंचाई योजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। बोधघाट परियोजना भी इन्हीं कारणों से बंद की गई थी और अब इसे फिर से बाहर निकालना दुर्भाग्यपूर्ण है। पर्यावरण के साथ ही यह परियोजना बस्तर के पूरे आदिवासी जन जीवन, सभ्यता और संस्कृति के विनाश का प्रतीक बनेगी।

सातवें दशक में जन्मी इस परियोजना को जब 1994 में आदिवासियों के प्रखर विरोध के कारण ठंडे बस्ते में डाला गया था, तब बस्तर संयुक्त मध्यप्रदेश का हिस्सा था और यहां कांग्रेस की सरकार थी। वनों, जैव-विविधता और वन्य जीवों के विनाश, आदिवासी सभ्यता और संस्कृति की तबाही, पर्यावरण-पारिस्थितिकी तंत्र की बर्बादी, बड़े बांधों की अवहनीयता आदि-इत्यादि जिन कारणों से इस परियोजना को डिब्बे में डालने को सरकार मजबूर हुई थी, वे कारण न केवल ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं, बल्कि परिस्थितियां और गंभीर हुई हैं और आदिवासी जन जीवन का मामला राजनैतिक रूप से और ज्यादा संवेदनशील बना है। आदिवासी समुदायों के प्राकृतिक संसाधनों पर नैसर्गिक अधिकार, उनके स्वशासन और उनके जबरिया विस्थापन के सवाल आज राजनीति के केंद्र में है। इन सभी मुद्दों पर आदिवासियों के बीच बढ़ती राजनैतिक जागरूकता भी इसका कारण है।

सरकार की मंशा पर ही सवाल

इसलिए चार दशक से डिब्बे में बंद पड़ी इस विवादास्पद परियोजना को जनता से पूछे बिना बाहर निकालना ही इस सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करने के लिए काफी है, क्योंकि अनुभव यही बताता है कि कोई भी प्रोजेक्ट आम जनता या आदिवासियों की भलाई और विकास के नाम पर ही शुरू होता है और बाद में वही पृष्ठभूमि में धकेल दिए जाते हैं। बस्तर में एनएमडीसी और एस्सार आदि इसी बात के उदाहरण हैं। अपने एक आलेख में विस्थापन के खिलाफ जनसंघर्षों से जुड़े छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला बताते हैं : “मध्यप्रदेश के ही सरदार सरोवर बांध की त्रासदी हमारे सामने है। गुजरात के खेतों में पानी दिए जाने के उद्देश्य से बनाए गए इस विशाल बांध ने मध्यप्रदेश के सैकड़ों गांवों और कस्बों को उजाड़ दिया या यूं कहें कि नर्मदा किनारे की एक पूरी सभ्यता को ख़त्म कर दिया। आज भी प्रभावित समुदाय पुनर्वास की मांग को लेकर संघर्षरत हैं। इस व्यापक विनाश के बावजूद सरदार सरोवर का पानी गुजरात के किसानों के खेतों में पहुंचाने के बजाए बड़ी- बड़ी कम्पनियों को दे दिया गया।” (बोधघाट : छत्तीसगढ़ के बस्तर में फिर विनाश को आमंत्रण?) नव उदारीकरण के दौर की हकीकत यही है।

हालांकि राज्य सरकार का यह आश्वासन स्वागत योग्य है कि बस्तर की जनता की बात मानी जाएगी तथा पुनर्वास-व्यवस्थापन पहले होगा, लेकिन अतीत के कटु अनुभव को देखते हुए इस पर विश्वास करना कठिन है कि भविष्य में आने वाली कोई सरकार इस वादे पर अमल करने को बाध्य होगी, क्योंकि इस परियोजना की पूर्णता की अवधि भी 10-15 साल से कम नहीं होगी। सरकार के अनुसार इस परियोजना के लिए 2488 परिवारों के 12888 लोग विस्थापित होंगे। इस आंकड़ें को आसानी से चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि 1971 की जनगणना में इन गांवों की आबादी लगभग 10000 थी। यदि जनसंख्या में वार्षिक वृद्धि दर 2.5% भी मानी जाए, तो आज यहां की जनसंख्या 35000 से कम नहीं होगी। तो जो सरकार शुरू में ही विस्थापितों की संख्या में हेरा-फेरी कर रही हो, उसके सबको पुनर्वास देने के वादे पर विश्वास नहीं किया जा सकता।

यदि कांग्रेस सरकार को इस परियोजना को पुनर्जीवित करना ही था, तो वह अपनी परिकल्पना के साथ पहले जनता के पास आती और सहमति प्राप्त करती। इसके बजाय उसने पहले केंद्र के पास जाकर इस डिब्बाबंद परियोजना को क्रियान्वित करने की अनुमति ली है और अब वह जनता से सहमति मांग रही है। यह सरकार की उल्टी चाल है। जबकि न तो अभी तक इस परियोजना से वनों के विनाश के चलते होने वाले पर्यावरण और आदिवासी जनजीवन के नुकसान का आंकलन ही सामने आया है और न ही इस परियोजना से प्रभावित होने वाले गांवों की ग्राम सभाओं से ही कोई सहमति ली गई है।

 

सबसे जरूरी है आदिवासियों का विश्वास हासिल करना

तो आदिवासी उस सरकार के वादों पर कैसे विश्वास करें, जिसकी करनी ही कथनी से अलग है? यह तो वही सरकार है न, जिसने वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन के लिए नियम-उपनियम बनाने वाली समिति को ही निष्क्रिय कर दिया है और आज भी पूरे प्रदेश के आदिवासी वन भूमि पर अपने स्वाभाविक नैसर्गिक अधिकार से वंचित हैं। यह वही कांग्रेस सरकार है न, जिसके राज में आदिवासियों का वन विभाग के साथ उनकी बेदखली के खिलाफ टकराव जारी है। इसी कांग्रेस राज में कोयला खनन के लिए कार्पोरेटों का रास्ता साफ करने के लिए वनाधिकार कानून के तहत बांटे गए भूमि-अधिकार पत्र भी छिनने के प्रकरण सामने आ रहे हैं। यह वही सरकार हैं न, जिसके राज में गरीबों को खेती और आवास के लिए जमीन दिए जाने की तमाम योजनाओं पर ग्रहण लगा हुआ है। यह वही सरकार है न, जिसके राज में उसके वादे के बावजूद पेसा और 5वीं अनुसूची के प्रावधानों पर अमल और ग्राम सभाओं के सशक्तिकरण के जरिये आदिवासी स्वशासन आज भी दूर का सपना है। फिर कोई आदिवासी कैसे और क्यों सरकार के उन आश्वासनों पर विश्वास कर लें, जिनके पीछे विधि का कोई बल भी नहीं है?

इसीलिए इस परियोजना पर आगे बढ़ने से पहले इस सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए, आदिवासी समुदायों की जल-जंगल-जमीन पर उनके नैसर्गिक स्वामित्व से जुड़े अधिकारों के छीने जाने की आशंकाओं को दूर करना। इसके लिए पहले राज्य सरकार वनाधिकार कानून तथा अन्य शासकीय योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित करें, ताकि वन भूमि व अन्य सरकारी भूमि पर काबिज सभी गरीबों लोगों को भूस्वामी हक मिले और किसी भी पात्र दावेदार को इससे वंचित न किया जाएं। इसके साथ ही भूमि सुधार कानून के तहत भूमिहीनों, सीमांत और गरीब किसानों को कृषि व आवास के लिए भूमि वितरण के काम को अपने एजेंडे पर लाने का काम कांग्रेस सरकार को करना चाहिए। आदिवासियों, दलितों तथा वंचित तबकों के लिए यह भूमि अधिकार ही भविष्य में होने वाले बोधघाट परियोजना सहित किसी भी विस्थापन की दशा में उनके पुनर्वास व व्यवस्थापन की गारंटी करेगा। इसके साथ ही इस सरकार को पेसा कानून व पांचवी अनुसूची के प्रावधानों को लागू करना चाहिए, ताकि आदिवासी समुदाय स्वशासन के जरिए अपने विकास के तरीकों व मॉडल का फैसला कर सके।यदि सरकार वास्तव में आदिवासी हितों के प्रति चिंतित है, तो ईमानदारी से उसे पहले संविधान से सृजित आदिवासी अधिकारों की स्थापना करने की पहल करनी चाहिए।

वृक्षारोपण का संदेहास्पद दावा

परियोजना पर विवाद सामने आने के बाद अब कांग्रेस सरकार ने एक आश्चर्यजनक दावा और ठोंक दिया है। उसका कहना है कि 5704 हेक्टेयर वन भूमि की जगह 8419 हेक्टेयर क्षेत्र में क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण कर दिया गया है, जिसके आधार पर इस परियोजना पर आगे बढ़ने की अनुमति वर्ष 2004 की शुरूआत में ही उसे मिल चुकी है। यह दावा पूरी तरह से संदेहास्पद है, क्योंकि 1994 में केंद्र सरकार द्वारा इस परियोजना के लिए स्वीकृति रद्द किए जाने के बाद बोधघाट के नाम पर ऐसी क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। दूसरी बात, यह वृक्षारोपण कब और कहां किया गया, इससे बोधघाट से होने वाले पर्यावरण विनाश और 400-500 वर्ष पुराने साल और सागौन वनों के नष्ट होने की कितनी भरपाई हो रही है और वर्तमान में इस वृक्षारोपण की क्या स्थिति है, इसकी कोई जानकारी अभी तक सरकार ने नहीं दी है। कथित वृक्षारोपण का दावा उसी प्रकार का है, जिस प्रकार का दावा वह सिंचाई के रकबे के बारे में कर रही है।

एक बात और। जो 42 गांव डूबान में आ रहे हैं, वहां से विस्थापित होने वाले परिवारों के लिए 5000 हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि का इंतज़ाम करना होगा और इसी क्षेत्र में करना होगा। दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा जिलों से विस्थापित होने वाले इन परिवारों का पुनर्वास उत्तर बस्तर के किसी जिले में नहीं हो सकता। इनके पुनर्वास के लिए फिर 5000 हेक्टेयर वन क्षेत्र की बलि देनी होगी। याने वृक्षारोपण के नाम पर किया-धरा सब बराबर!

बस्तर के वन क्षेत्रों में पेड़ों का घनत्व प्रति एकड़ 900 है। इसे ही अपने आंकलन का आधार बनाये, तो इस परियोजना में डूबने वाले वन क्षेत्रों में साल और सागौन सहित 1.3 करोड़ पेड़ हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे। इस परियोजना में शामिल 9000 हेक्टेयर शासकीय और निजी भूमि को भी गणना में ले लिया जाए, तो ढाई-तीन करोड़ पेड़ नष्ट हो जाएंगे। इन पेड़ों से हासिल होने वाली पर्यावरण-आर्थिकी मानव अस्तित्व को बचाने-बढ़ाने के लिए तो जरूरी है, लेकिन कॉरपोरेटों की तिजोरी इससे भरने वाली नहीं है। और इस सरकार की चिंता के केंद्र में मानव अस्तित्व का सवाल निश्चित ही नहीं है।

महंगी पनबिजली

लेकिन क्या इस परियोजना से पैदा होने वाली बिजली ही इस प्रदेश की आम जनता और उद्योगों के लिए वहनीय होगी? सभी उपलब्ध आंकड़े और व्यवहार यही बताते हैं कि नई जल विद्युत परियोजनाओं से पैदा होने वाली बिजली अत्यधिक महंगी होती है। इसीलिए पूरी दुनिया इसके विकल्प के रूप में सौर ऊर्जा को बढ़ावा दे रही है। इसलिए सवाल घूम-फिरकर फिर यही आता है कि फिर इस परियोजना के लिए इतनी जिद क्यों? उत्तर भी सीधा-सीधा यही है कि ढाई-तीन लाख करोड़ रुपयों के खेल में कौन शामिल नहीं होना चाहेगा, चाहे फिर इस परियोजना की आर्थिक उपादेयता शून्य ही क्यों न हो!!

कॉर्पोरेटपरस्त जिद छोड़ें सरकार

छत्तीसगढ़ किसान सभा के नेता सुखरंजन नंदी, जिन्होंने कई सालों तक कांकेर और बस्तर के आदिवासियों के बीच काम किया है, कहते हैं कि — “50 गांवों तथा 14000 हेक्टेयर भूमि के डूबने, खरबों की संपत्ति के नष्ट होने तथा अकल्पनीय सामाजिक-पर्यावरणीय नुकसान के साथ 23000 करोड़ रुपये के निवेश की कीमत पर सिंचाई के नाम पर इस परियोजना के पक्ष में मुहर नहीं लगाई जा सकती। यह विकास का नहीं, वास्तव में विनाश का कारपोरेट मॉडल है।” उनका सुझाव है कि पहले इस परियोजना को रोका जाए तथा आदिवासी स्वशासन की स्थापना के बाद ही इस पर फैसला हो। बांध के नाम पर होने वाला निवेश आदिवासी क्षेत्रों में सड़क और बिजली जैसे ढांचागत विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बुनियादी मानवीय सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए व्यय किया जाएं। सर्व आदिवासी समाज के नेताओं का जोर भी इसी प्रकार के सुझावों पर है। कांग्रेस सरकार को अपनी कॉर्पोरेटपरस्त जिद छोड़कर इन सुझावों पर ध्यान देना चाहिए।