अहमद पटेल जी अस्वस्थ थे. अपेक्षाकृत एक छोटे अस्पताल में भर्ती थे. वहीं से उन्होंने मुझे फ़ोन किया था. तब वे आईसीयू में नहीं गए थे. जैसा कि उनका स्वभाव था, उन्होंने छोटी सी चर्चा में बहुत सी राजनीतिक बातें कीं. इसके बाद उनकी तबियत बिगड़ी और उन्हें एक बड़े अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. कोई नहीं जानता था कि वे कभी नहीं लौटने के लिए वहां जा रहे हैं.
उनसे मेरी पहली मुलाक़ात तब हुई थी जब वे अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रभारी थे. उस समय हम उनसे मिलने दिल्ली जाया करते थे. अपने अनुभव से कह सकता हूं कि वे राजनीतिक रुप से वे एक असाधारण व्यक्ति थे लेकिन साधारण रहना चाहते थे. वे साधारण रहना ठीक तरह से जानते भी थे. लंबी राजनीतिक पारी में वे राजनीति के अहम फ़ैसलों के सूत्रधार रहे लेकिन हमेशा अपने आपको ‘लो प्रोफ़ाइल’ रखा. मीडिया और सुर्खियों से दूर. लेकिन उनकी धमक न युवाकाल में कम थी न वरिष्ठ होने के बाद.
उन्होंने अपनी राजनीति की शुरुआत युवा कांग्रेस से की थी. चुनाव लड़ने की शुरुआत स्थानीय निकाय से की और 1977 में सिर्फ़ 28 वर्ष की उम्र में लोकसभा पहुंच गए थे. उनकी राजनीतिक सूझबूझ का सिक्का 80 के दशक से ही जमने लगा था. 1984 में वे तीसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए थे. 1985 में प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी जी ने उन्हें संसदीय सचिव बनाया था. अहम राजनीतिक उत्तरदायित्वों का यह सिलसिला चलता रहा. 2004 में केंद्र में यूपीए के गठन में उनकी अहम भूमिका थी. लेकिन उन्होंने सरकार में शामिल होने की बजाय सरकार और संगठन के बीच सेतु की भूमिका को चुना. यूपीए की चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव की तरह वे गठबंधन के ‘ट्रबल शूटर’ बने रहे. जब किसी को दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के बीच सेतु का काम करना हो तो वह स्वाभाविक रुप से दंभ का शिकार हो सकता है. लेकिन जिस कुशलता से अहमद पटेल जी ने अपने आपको विनम्र बनाए रखा, वह अपने आप में एक उदाहरण है. वे पीढ़ी दर पीढ़ी कई पीढ़ियों के कांग्रेस नेताओं से संपर्क में रहे और किसी से भी जीवंतता में कोई कमी नहीं आने दी. लंबे कार्यकाल के बाद जब मोतीलाल वोरा जी पार्टी के कोषाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए तो यह अहम ज़िम्मेदारी अहमद पटेल जी को ही दी गई. और यह निर्णय हर किसी को स्वाभाविक सा ही लगा.
अहमद पटेल जी को हर कोई अहमद भाई ही कहता रहा है. चाहे वे कांग्रेस के उनके अपने साथी हों, पत्रकार हों या फिर प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के सदस्य. अहमद भाई चाहे सोनिया जी के सचिव रहे हों या फिर कोषाध्यक्ष, उनके कामकाज का अंदाज़ निराला रहा है. उनसे मिलने का समय अक्सर देर रात ही तय होता रहा है. दिन भर के कामकाज के बाद न कभी उनके चेहरे पर थकान देखी न जटिल राजनीतिक गुत्थियां सुलझाते हुए माथे पर शिकन. कड़े निर्णय सहजता से लेते भी हमने उन्हें देखा और कड़े निर्देश भी नर्म लहज़े में देते भी. उनकी नाराज़गी भी जिन लोगों ने देखी वे बताते हैं कि कड़ी फटकार के बावजूद उनके भीतर की आत्मीयता कभी कम होती नहीं दिखी. सरकार और संगठन के बीच के मसले हों या संगठन में समन्वय का मुद्दा, वे जिस अंदाज़ में उसे सुझलाते रहे वह एक तरह की कारीगरी ही थी. हम जैसे राजनीति के छात्रों के लिए वे एक पाठशाला की तरह थे. हमारे लिए तो उनको काम करते देखना हमेशा सीखने का एक मौक़ा ही रहा.
पचास साल से अधिक समय तक अलग अलग नेतृत्व के साथ काम करते हुए अपनी राजनीतिक साख को बचाए और बनाए रखना किसी भी राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए चुनौती हो सकती है. लेकिन अहमद पटेल जी की कार्यकुशलता ही थी कि वे हर समय और काल में एक जैसे प्रासंगिक और पार्टी के लिए उपयोगी बने रहे. पांच पांच बार राज्यसभा में भेजे जाने का निर्णय अगर कांग्रेस नेतृत्व ने लिया तो इसकी अपनी वजहें भी थीं. अंतिम बार तो वे गुजरात से चुनाव लड़कर राज्यसभा में पहुंचे. वरना गुजरात में राज्यसभा के लिए चुनाव ही नहीं होते थे. हुए तो तब जब केंद्र में भाजपा की सरकार थी और सरकार के दोनों प्रमुख कर्ताधर्ता गुजरात से ही हैं. उनकी कूटनीति को विफल करके राज्यसभा में आने की चुनौती भी अहमद पटेल जी ने स्वीकार की और सफल होकर भी दिखाया. वे एक बेहद चतुर रणनीतिकार थे.
उन्होंने कांग्रेस पार्टी के सुनहरे दिन भी देखे और चुनौतीपूर्ण समय भी देखा. लेकिन वे अपने इरादों में और अपने कामकाज में वे ठेठ कांग्रेसी बने रहे. उनके घर से लेकर कार्यालय तक हर जगह महात्मा गांधी की तस्वीरें लगी हुई हैं. गांधी जी की ऐसी दुर्लभ तस्वीरें मैंने और कहीं नहीं देखीं. गांधी से उनके इस प्रेम की वजह सिर्फ़ उनका गुजरात से आना नहीं था. वह कांग्रेस के प्रति उनकी अटूट निष्ठा ही थी. नेहरू जी के प्रति उनके मन में जो श्रद्धाभाव था, वह भी अपने आपमें एक उदाहरण था.
कांग्रेस का सिपाही कैसा होता है, यह सीखने देखने के लिए कांग्रेसजनों को अहमद भाई के जीवन और कार्यों पर एक नज़र डालनी चाहिए. पार्टी के प्रति निष्ठा का उदाहरण देना हो तो भी उनका नाम बार बार आएगा. राजनीति की जटिलता को वे जिस सहजता से सुलझाते रहे वह भी हम सबके लिए एक सबक है. जिनकी आंखें सरकार और सत्ता की चमक-धमक से चौंधिया जाती हैं, उन्हें सीखना चाहिए कि कैसे एक कार्यकर्ता सत्ता से दूर रहकर संगठन के लिए समर्पित होकर कार्य कर सकता है.
अहमद भाई कांग्रेस के एक मज़बूत स्तंभ थे. उनके चले जाने से हम कांग्रेस के लोगों के लिए दिल्ली एकाएक सूनी हो गई है. पता नहीं कि अबकी बार जब दिल्ली जाना होगा तो कौन समझाएगा कि पार्टी को अगली मंज़िल तक पहुंचाने के लिए कौन सा रास्ता सबसे मुफ़ीद होगा. यह वक़्त नहीं था अहमद भाई के जाने का. पर ईश्वर को शायद अभी हमारी और परीक्षा लेनी है. विश्वास है कि उनकी प्रेरणा इसे भी आसान करेगी.
(हरिभूमि से साभार)