एक प्रचलन अधिकांश क्षेत्रों में देखा जाता है कि घर में बच्चों का जन्म होते ही अक्सर बैंक में एक नया खाता, उस बच्चे के नाम से खुलवा दिया जाता था। खासतौर पर बिहार में बेटियों के पैदा होते ही, पिता अपनी बेटी के नाम पर एक बैंक खाता जरूर खोलवा देते हैं और जन्म से लेकर बेटी के विवाह तक उसमें थोड़ी-थोड़ी रकम जमा करते जाते हैं। ताकि लड़के वालों को बेटी के विवाह के समय दहेज के रूप में मुँह मांगी रकम दी जा सके। वर्तमान परिदृश्य में इस प्रचलन के साथ-साथ एक और प्रवृति भी जुड़ गई है। या फिर यों कह लें कि प्रचलन में बदलाव आ गया है। आज बच्चों के पैदाईश के साथ ही लोग अंग्रेजी स्कूलों की पड़ताल करने लगते हैं और बड़ा होते ही उसमें दाखिले के लिए एड़ी-चोटी एक कर देते हैं। अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा बच्चों की अंग्रेजी माध्यम से होने वाली पढ़ाई में ही खर्च कर देते हैं। यह स्थिति सिर्फ उच्च या मध्यम वर्ग की नहीं है, बल्कि निम्न-से-निम्न वर्ग के लोग भी अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम में ही पढ़ाना चाहते हैं। सिर्फ यही नहीं इन दिनों विदेशी शिक्षा अथवा विदेश भेजने का प्रचलन भी जोरो पर है।
भारत में मोंटेसरी पद्धति, किंडर गार्डेन पद्धति और गुरुकुल जैसी पद्धति से शिक्षा देने का प्रचलन रहा है। इन भारतीय पद्धतियों के माध्यम से मनुष्य का सर्वांगीण विकास होते देखा गया। ऐसी शिक्षा पद्धतियों ने विद्वता के उस पराकाष्ठा का सृजन किया कि भारत को ‘विश्व गुरु’ कहा जाने लगा। 1850 में मैकाले की शिक्षा पद्धति के प्रारंभ होने के साथ ही अंग्रेजी का संक्रमण काल शुरु हुआ और गुरुकुल शिक्षा पद्धति समाप्त हो गई। अंग्रेजी का संक्रमण काल प्रारंभ होते ही अंग्रेजी, ज्ञान और शिक्षा का पर्याय बन गई। फिर धीरे-धीरे अंग्रेजी लोगों के सामाजिक स्तर को भी तय करने लगी। दो शब्द अंग्रेजी बोल लेने वाले लोगों के प्रति सामाजिक नजरिया ज्ञानी वाला बन जाता है, भले ही वह टूटी-फूटी ही क्यों न हो। कुछ ऐसी ही झलक फिल्म ‘सुपर 30’ में देखने को मिली, जहां एक नेता अपने भाषण में कहता है ‘लव इन्क्रीज स्लोली एंड क्रॉस द बॉर्डर’ (धीरे-धीरे प्यार को बढ़ाना है, हद से गुजर जाना है।) ऐसी गलत अंग्रेजी बोलकर वह नेता एक ऐसे वर्ग पर अपना प्रभाव जमाना चाहता है, जो अशिक्षित अथवा कम पढ़ा-लिखा होता हैं। किंतु दुर्भाग्य है कि यही समय की मांग है। इसी फिल्म में एक जगह अंग्रेजी के महत्व को बताते हुए आनंद कुमार (ऋत्विक रोशन) बोलते हैं कि देश में लाखों विद्यार्थी नौकरी से सिर्फ इसलिए वंचित रह जाते हैं क्योंकि वे “मे आई कम इन” नहीं बोल पाते हैं। फिल्मों के ऐसे दृश्य अपने ही देश में परायी भाषा के महत्व के साथ ही हिंदी के साथ किए जाने वाले सौतेले व्यवहार पर भी प्रहार करते है।
हमारी अंग्रेजियत वाली सोच सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह घर के एक-एक हिस्से तक को प्रभावित कर चुका है। अब घर का पूरा डिजाईन भी विदेशी तरीके से ही बनाया जा रहा है। इस प्रभाव से हमारा शौचालय भी अछूता नहीं रहा। हमारे देश में शौचालय भी पश्चिमी संस्कृति और अंग्रेजियत से प्रभावित होकर कमोड युक्त हो गया है। भारतीय शैली का शौचालय अब देश के किसी भी हिस्से में शायद ही देखा जाता है। घर हो या होटल हर तरफ पश्चिमी संस्कृति से युक्त शौचालय ही देखने को मिलता है। कहा जाता है कि किसी देश की पहचान को मिटाना हो तो उस देश की भाषा, धर्म और संस्कृति को समाप्त कर देनी चाहिए। ऐसा करने से देश की अस्मिता खुद-ब-खुद समाप्त हो जायेगी। यह बात तय भी है कि जिस देश में दिनचर्या की शुरूआत भी हम दूसरे देश (पश्चिमी) की सभ्यता-संस्कृति के अनुसार करते हों, वहां की अपनी पहचान समाप्त प्राय ही समझी जानी चाहिए। शौचालय, भोजन, रहन-सहन, वेश-भूषा सभी में अंग्रेजियत अथवा पश्चिम का पुट स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।
हिंदी मीडियम, अंग्रेजी मीडियम कई ऐसी फिल्में बनी, जिसमें अंग्रेजी के पीछे भागते हुए लोगों को हिंदी के महत्व को अच्छे से समझाया गया। किंतु अंग्रेजी के पीछे भागने वाले लोगों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। बच्चों के हिंदी बोलने से माँ-बाप को भी शर्मिंदगी महसूस होती है। वे तुरंत अपने बच्चों को कहने लगते हैं कि “फलाना का बच्चा कितनी अच्छी अंग्रेजी बोलता है। एक तुम हो, इतना पैसा खर्च करने के बाद भी अंग्रेजी नहीं बोल पाते हो।” समाज में अपना कोई स्तर बना कर रखना है तो फर्राटेदार अंग्रेजी अथवा टूटी-फूटी अंग्रेजी और दरवाजे पर दुम हिलाता हट्टा-तगड़ा कुत्ता बांधकर रखना आवश्यक हो गया है। देश की ऐसी स्थितियों अथवा लोगों की ऐसी मानसिकता को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि शायद बुजुर्गों ने “देशी मुर्गी, विलायती बोली” का मुहावरा ऐसी सोच पर प्रहार करने के लिए ही रचा होगा। हिंदी पर रोटी सेंकने वाले और विमर्श करने वाले लोग भी हिंदी का महत्व अधिकांश हिंदी दिवस के दिन ही सिर्फ समझ पाते हैं और बाकी दिन उनका पूरा रूझान अंग्रेजी पर ही रहता है। वे भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ाना पसंद करते हैं, जिसका प्रमुख कारण है हिंदी में पढ़ने वाले बच्चों का अंधकारमय भविष्य।
समाज की ऐसी मानसिकता और हिंदी के प्रति लोगों की सोच देखकर, हिंदी दिवस मनाने वाले लोग ठीक वैसे ही प्रतीत होते हैं, जैसे देवी की आराधना करने वाले अथवा दुर्गा और सरस्वती की पूजा करने वाले लोग पंडालों में चिकनी चमेली, शीला की जवानी और मुन्नी बदनाम हुई जैसे गानों को बजाने वाले लोग। इन सबके बावजूद हम सिर्फ लोगों की मानसिकता को दोष नहीं दे सकते हैं। इसके लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार हमारी देश की व्यवस्था और हिंदी के साथ किया जाने वाला सौतेला व्यवहार भी है। साल भर हिंदी के नाम पर राजनीति करने वाले लोग कभी हिंदी के विकास में वे योगदान नहीं दे पायें, जिसकी हिंदी हकदार है। न तो हिंदी में रोजगार के साधन हैं और न ही अच्छी अध्ययन सामग्री। हिंदी माध्यम स्कूलों की स्थिति भी जर्जर ही प्रतीत होती है। हम अपने ही देश में परायी भाषा पर निर्भर हैं। न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका सभी के कामकाज की निर्भरता परायी भाषा पर ही है।
जब से हमारे दिल में ‘ये दिल मांगे मोर’ का जन्म हुआ, तब से हम हिंदी, अंग्रेजी दोनों से हटकर खिचड़ी भाषा में उलझकर रह गए। इस मोह माया में दोनों गए, माया मिली न राम। अत: यदि हिंदी को बचाना है और हिंदी के साथ अपनी देश की सभ्यता, संस्कृति की रक्षा करनी है तो हमे अपनी भाषा पर ही निर्भर होना होगा। परायी भाषा का ज्ञान गलत नहीं है, किंतु परायी भाषा पर गुमान न्यायोचित नहीं। लंका की बर्बादी भी इसलिए हुई थी, क्योंकि विभीषण ने गद्दारी की थी। इसलिए हमे यह तय करना होगा कि हमे विभीषण बनकर हिंदी की दुर्गति करनी है या फिर पाणिनी बनकर भाषा का विकास।