कोरोना महामारी ने शिक्षा पर भी वैसे ही मुसीबतें खड़ी कर दी जैसी उसने स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर की है. जिस गति से शिक्षा के क्षेत्र में मानकों का पतन हुआ है वह निसंदेह चिंताजनक है. सरकारों के तमाम प्रयासों के बावजूद वर्तमान में जारी ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण करने को कोई तैयार नहीं है. बहुत से प्रदेशों में अलग अलग तरीके से शिक्षा पहुंचे इसका जतन किया जा रहा है . नए तरीके से शिक्षा देने के लिए नवाचार का प्रयोग हो रहा है लेकिन हकीकत यह भी है की बड़ी संख्या में बच्चे अब पढ़ाई से मुंह मोड़ चुके हैं .गरीब राज्यों में जहां अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है या उन जगहों पर जहां सरकारी पहुंच बहुत कम है पढ़ाई लगभग ठप हो चुकी है .
ऑनलाइन शिक्षा की दुर्गति ने शिक्षा पर पहले हुए तमाम शोधों को सही साबित कर दिया है की औपचारिक शिक्षा ही सर्वोत्तम शिक्षा प्राप्त करने का तरीका है .अमीरी गरीबी की एक बड़ी खाई शिक्षा में दिखने लग गई हैं .गरीब बच्चे तमाम जायज कारणों से पढ़ाई से कोसों दूर हो गए हैं . सुविधा और साधन संपन्न बच्चे जिस भी दिन स्कूल खुलेगा उस दिन वह वहां हाजिर हो जाएंगे लेकिन सरकारी स्कूलों में बच्चे लौटेंगे वह भी कितने इसका दावा कोई भी कर पाने की स्थिति में नहीं है.
पढने पढ़ाने की प्रक्रिया में हम इतने पिछड़ गए हैं कि अब सरकारों को दोबारा वर्षों पुराना अभियान स्कूल चले हम चलाना पड़ेगा .यह अभियान कुछ वर्षों पहले सर्व शिक्षा अभियान का हिस्सा था जिसको आशातीत सफलता भी मिली थी . बाल श्रमिकों को स्कूल पहुंचाने में इस योजना का बड़ा योगदान था , बाद में मध्यान्ह भोजन ने इस अभियान को बढ़ाने में मदद की लेकिन अब पिछले छह महीनों से शिक्षा वापस दस वर्ष पीछे चली गई है. यही हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का असली चेहरा है . हम इस व्यवस्था को इतना भी टिकाऊ नहीं बना पाए की यह छह महीने की मार को झेल सकें.
सरकारों को दोबारा जमीन में आना पड़ेगा . ऐसे सारे बच्चों को शिक्षा व्यवस्था में वापस लाना होगा जो मौजूदा हालात से शिक्षा से मुंह मोड़ चुके हैं . जितना इतने सालों में शिक्षा में हमने पाया था वह हमने गँवा दिया है.शिक्षा और अर्थव्यवस्था का सीधा सम्बन्ध है.मौजूदा संकट गरीब और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों पर मुसीबत का पहाड़ बनकर टूटा है . हो सकता है यह बच्चे वापस शिक्षा की मुख्यधारा में वापस ही ना आ पाए . जब कभी भी स्कूल खुलेंगे सरकार को तब पता चलेगा की उसके स्कूलों की छात्र संख्या कितनी बच गई है . यह चुनौतीपूर्ण इसलिए भी है कि जो कसर हमारी शिक्षा में थी उसके अलावा अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने ने बच्चों को शिक्षा व्यवस्था से दूर कर दिया .
देश में संचालित निजी स्कूल जिसमें अब लगभग स्कूली शिक्षा के आधे बच्चे पढ़ रहे हैं (लगभग 12 करोड ) वह भी इस मार से अछूते नहीं है . अधिकतर निजी स्कूल जो किराए की बिल्डिंगों में और कम फीस ले रहे हैं उन पर भी ताला लगने की नौबत आ गई है. हालत यह हो गई है की इनमें से आधे स्कूल बंद हो जाएंगे और इसमें पढ़ाने वाले और अन्य कर्मचारी बेरोजगार हो जाएंगे और बहुत हो भी चुके होंगे .सरकारों की सोच अभी इसओर नहीं है लेकिन बहुत जल्दी इस बारे में कुछ करना होगा. छोटे निजी स्कूल को पैसों का सहारा देकर उन्हें उठाना पड़ेगा .
ध्वस्त हो चुकी शिक्षा व्यवस्था को हमे पूरी मेहनत करके ठीक करना होगा .अगर हम इसे ठीक नहीं कर पाए तो हालत अब और बिगड़ेंगे और हम शिक्षा को लेकर ऐसी जगह पर जाकर खड़े हो जाएंगे जहां आने वाले समय पर हमें बड़ा रंज होगा.
एक आकलन के अनुसार अस्सी प्रतिशत सरकारी स्कूल और करीब पचास प्रतिशत निजी स्कूल के बच्चे अपनी पढाई छोड़ चुके है.
लेखक- राजीव गुप्ता शिक्षाविद्