किसान आंदोलन के बारे में जब भी सोचता हूं तो एक प्रश्न मन में बार-बार आता है कि ऐसा क्या है जो भाजपा, संघ और मीडिया तीनों मिलकर बाकी आंदोलन की तरह इसे धारणाओं के आधार पर नहीं कुचल पा रहे हैं? पिछले कई दिनों से किसानों के चरित्र का हनन करने के लिए की जा रहीं तरह-तरह की कवायदों पर भी भाजपा को इस बार क्यों शहरी मिडिल क्लास का पहले जैसा समर्थन नहीं मिल पा रहा है? आंदोलनकारियों को फर्जी और यहां तक की उन्हें आतंकवादी ठहराने की परंपरागत रणनीति भी किसान के आगे फीकी पड़ती दिख रही है. फिर धुर्वीकरण की धार को बढ़ाने के लिए पंजाब के किसानों को धर्म और खालिस्तान से जोड़ना भी बेकार ही गया.
हालांकि, अल्पसंख्यक सिख भाइयों को बहुसंख्यक आबादी के सामने खड़ा करके उनका शिकार करने का मंसूबा भी बनाया गया था, पर वह भी चकनाचूर हो गया. कुछ नहीं सूझा तो पानी के मुद्दे पर पंजाब और हरियाणा को आग में झोंक दिया गया. पर, किसान इससे भी उभर आए. अब क्या? तो किसानों के साथ वार्ताओं में सरकार ने तीनों कानूनों की वापसी पर अपनी हठ दिखाई, और इस मुद्दे पर आगे लाया गया मीडिया को, जो पूरे दिन किसानों नेताओं के अड़ियल रुख की आलोचना करता नहीं थकता था. इस प्लान ने भी दम तोड़ दिया, बल्कि जरूरत से ज्यादा किसान विरोधी कवरेज के कारण उल्टा मीडिया आज कठघरे में खड़ा है.
असल में किसानों ने अपनी तरह से भाजपा की माइंड-सेट बनाने वाली हर योजना पर पानी फेर दिया. इसके आगे जाएं तो किसानों को आंदोलन से हटाने का कोई भी आइडिया जब काम नहीं कर रहा था तो भाजपा ने एक और तीर छोड़ा, जो वह इसके पहले सभी आंदोलन को कमजोर करने पर छोड़ती रही है. उसने आंदोलन के समानांतर और उसके खिलाफ तीन कानूनों का समर्थन करने वाले कथित किसान संगठन खड़े कर दिए. खैर, यह दांव भी ज्यादा देर इसलिए नहीं चला कि ऐसे संगठनों के साथ कोई संख्या नहीं थी.
आखिरी में जब बात गणतंत्र दिवस के मौके पर किसानों के दिल्ली में ट्रैक्टर परेड की आई तो मीडिया ने शुरूआत से ही सवाल पूछ-पूछकर यह धारणा बनानी चाही कि कहीं किसान हिंसा पर उतारू तो नहीं होंगे! हालांकि, दिल्ली में कोई पांच लाख ट्रैक्टरों के साथ परेड करके जिन किसानों ने अनुशासन की मिसाल दी उन पर तो चर्चा नहीं की गई. उल्टा ताक पर बैठे मीडिया ने ऐसे फुटेज चलाए कि दिल्ली में दंगों-सा माहौल हो गया हो. जबकि, कुछ छुटपुट घटनाएं हुईं जिनसे बचा जा सकता था. लेकिन, किसान और पुलिस के बीच अच्छा तालमेल न होने के चलते यह स्थिति बनी. रही बात लाल किले वाली घटना की तो इसमें मोदी सरकार खुद ही एक्सपोज हो गई. इसमें किसानों ने कुछ नहीं किया. कुल मिलाकर, साठ से अधिक दिनों से जारी इस आंदोलन का यदि एक पंक्ति में निष्कर्ष निकालूं तो कहना पड़ेगा अब तक तो भाजपा की विभाजनकारी राजनीति पर किसान भारी पड़े हैं.
लेखक- शिरीष खरे, पत्रकार