नए साल का स्वागत हमें ख़ुशियाँ मनाते हुए करना चाहिए या कि पीड़ा भरे अश्रुओं के साथ ? लोगों की ताज़ा और पुरानी याददाश्त में भी कोई एक साल इतना लम्बा नहीं बीता होगा कि वह ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले ! इतना लम्बा कि जैसे उसके काले और घने साये आने वाली कई सुबहों तक पीछा नहीं छोड़ने वाले हों।याद कर-करके रोना आ रहा है कि एक अरसा हुआ जब ईमानदारी के साथ हंसने या ख़ुश होकर तालियाँ बजाने का दिल हुआ होगा।
यह जो उदासी छाई हुई है वह हरेक जगह मौजूद है ,दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों,कोनों और दिलों में।काफ़ी कुछ टूट या दरक गया है इस बीच ।जिन जगहों पर बहुत ज़्यादा रोशनी होने का भ्रम हो रहा है हो सकता है वहाँ भी अंदर ही अंदर घुटता कोई अव्यक्त अंधेरा ही मौजूद हो।कई बार ऐसा होता है कि अंधेरों में जिंदगियाँ हासिल हो जाती है और उजाले सन्नाटे भरे मिलते हैं।चेहरों के ज़रिए प्रसन्नता की खोज के सारे अवसर वर्तमान पीड़ाओं ने ज़बरदस्ती करके हमसे हड़प लिए हैं।
मुमकिन है इस नए साल की सुबह हर बार की तरह बहुत सारे लोगों से मिल या बातें नहीं कर पाए हों।हम जानते हैं कि खिलखिला कर ख़ुशियाँ बिखेरने वाली कुछ आत्मीय आवाज़ें अब हम अपने बीच लगातार अनुपस्थित महसूस करने वाले हैं।उपस्थित प्रियजनों को नए साल की शुभकामनाएँ देते समय भी हमारे गले उस अव्यक्त संताप से भरे हो सकते हैं जो पीछे तो गुज़र चुका है पर उसके आगे का डर अभी ख़त्म नहीं हुआ है। चमकीली उम्मीदें ज़रूर आसमान में क़ायम हैं।
नए साल के ‘गणतंत्र दिवस’ पर हमेशा की तरह ही दिल्ली के भव्य ‘राजपथ’ पर चाँदनी चौक और उससे सटे ग़ालिब के ‘बल्ली मारान’ की गलियों की उदासियों के बीच राष्ट्र के वैभव का भव्य प्रदर्शन देखने वाले हैं।दुनिया को बताने वाले हैं कि हम व्यक्तियों की व्यक्तिगत उदासियों को राष्ट्र की सार्वजनिक मुस्कान पर हावी नहीं होने देते हैं।एक विदेशी मेहमान की मौजूदगी में हम अपनी सामरिक क्षमता और सांस्कृतिक विरासत का दुनिया भर की आँखों के सामने प्रदर्शन करेंगे।हो सकता है हमारे कोरोना के आँकड़े तब तक सवा करोड़ और उससे मरने वालों की संख्या डेढ़ लाख से ऊपर और दुनिया भर में बीस लाख के नज़दीक पहुँच जाए।खबरें डराती हैं कि महामारी अमेरिका में हर बारह मिनट एक व्यक्ति को निगल रही है।वहाँ अब तक क़रीब साढ़े तीन लाख लोगों की जानें जा चुकी हैं।पर हम अब मृत्यु के प्रति भय पर भी क़ाबू पाते जा रहे हैं।इन उम्मीदों से भरे हुए जीना चाहते है कि बीते साल के साथ ही वह सब कुछ भी जिसे हम व्यक्त नहीं करना चाह रहे हैं, अब अंतिम रूप से गुज़र चुका है।
ब्रिटेन के राजकुमार प्रिन्स हैरी की पत्नी मेगन मार्केल ने पिछले दिनों अमेरिकी अख़बार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के लिए एक भावपूर्ण घटना का चित्रण करते हुए संस्मरण लिखा था।किशोरावस्था के दौरान मेगन एक टैक्सी की पिछली सीट पर बैठी हुई न्यूयॉर्क के व्यस्ततम इलाक़े मैन्हैटन से गुजर रहीं थीं। टैक्सी से बाहर की दुनिया का नजारा देखते हुए उन्होंने एक अनजान महिला को फ़ोन पर किसी से बात करते हुए आंसुओं में डूबे देखा।महिला पैदल चलने के मार्ग पर खड़ी थी और अपने निजी दुःख को सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर रही थी।
मेगन ने टैक्सी ड्रायवर से पूछा कि अगर वह गाड़ी रोक दे तो वे उतरकर पता करना चाहेंगीं कि क्या महिला को किसी मदद की ज़रूरत है ! ड्रायवर ने किशोरी मेगन को भावुक होते देख विनम्रतापूर्वक जवाब दिया कि न्यूयॉर्क के लोग अपनी निजी ज़िंदगी शहर की सार्वजनिक जगहों पर ही जीते हैं।’’हम शहर की सड़कों ही पर प्रेम का इज़हार कर लेते हैं, सड़कों पर ही आंसू बहा लेते हैं ,अपनी व्यथाएँ व्यक्त कर लेते हैं ,और हमारी कहानियाँ सभी के देखने के लिए खुली होती हैं। चिंता मत करो ! सड़क के किसी कोने में खड़ा कोई न कोई शख़्स उस आंसू बहाती महिला के पास जाकर पूछ ही लेगा—‘सब कुछ ठीक तो है न ,’’ टैक्सी ड्रायवर ने मेगन से कहा।
कुछ ऐसा अद्भुत हुआ है कि पिछले नौ-दस महीनों के दौरान सारी दुनिया ने भी बिना कहीं रुके और किसी से उसके सुख-दुःख के बारे पूछताछ किए जीना सीख लिया है।हम याद भी नहीं करना चाहेंगे कि आख़िरी बार किस शव-यात्रा अथवा फिर शहर के किस अस्पताल या नर्सिंग होम में अपने किस निकट के व्यक्ति की तबीयत का हाल-चाल पूछने पहुँचे थे ! शहरों के कई मुक्तिधामों में अस्थिकलशों के ढेर लगे हुए हैं और पवित्र नदियों के घाट उनके प्रवाहित किए जाने की प्रतीक्षा में सूने पड़े हैं।
ख़ुशख़बरी यह है कि इतनी उदासी के माहौल के बीच भी लोगों ने मुसीबतों के साथ लड़ने के अपने जज़्बे में कमी नहीं होने दी है।लोग संकटों से लड़ भी रहे हैं और और न्यूयॉर्क के उस टैक्सी ड्रायवर के कहे मुताबिक़ कोई ना कोई उनसे पूछ भी रहा है —‘सब कुछ ठीक तो है न’! अगर लड़ने का जज़्बा क़ायम नहीं होता तो लाखों की संख्या में हज़ारों-लाखों भूखे-प्यासे प्रवासी मज़दूर अपने घरों को पैदल चलते हुए कैसे वापस पहुँच पाते ? वे हज़ारों लोग जो महामारी से संघर्ष में अस्पतालों के निर्मम और मशीनी एकांतवास को लम्बे अरसे तक भोगते रहे हैं वापस अपनी देहरियों पर कैसे लौट पाते ? और अब ये जो हज़ारों की तादाद में किसान अपने सारे दुःख-दर्द भूलकर कड़कती ठंड में देश की राजधानी की सड़कों पर डेरा डाले हुए हैं वे भी तो कुछ उम्मीदें लगाए हुए होंगे कि नए साल में सब कुछ ठीक होने वाला है। उनके लिए यह भी क्या कम है कि देश की जनता उनसे बार-बार पूछ रही है -‘सब कुछ ठीक तो है न’ ! नए साल में ख़ुश रहने के लिए अब हमें किसी का इतना भर पूछ लेना भी काफ़ी मान लेना होगा कि :’नया साल मुबारक, सब कुछ ठीक तो है न !’