एक खेल खेले हम !
” पापा मैं बोर हो रहा हूं” ये बात मेरे 7 साले के बेटे ने मुझसे कही तो एक पल के लिए मैं स्तब्ध रह गया। बच्चों के पास समय का सदुपयोग करने की गजब की क्षमता होती है, लेकिन आज के सोशल मीडिया और डिजिटल क्रांति के युग में बच्चे अपनी natural curiosity को नजर अंदाज कर रहे हैं। Lock down में online school के वजह से movement एकदम खत्म हो गया है, आलस और फास्ट फूड के बुखार से obesity की tendency चरम पर है। एक वो ज़माना था जब खेलने के लिए 24 घंटे भी कम पड़ जाते थे और एक ये जमाना है जहां बच्चे बोर हो रहे हैं।
आज की पीढ़ी को खेलने कहा जाए तो वो PS4, PUBG जैसे video games को priority देती है जिनके खेलने के लिए पिताश्री का पैसे वाला होना जरूरी है , मुझे आज भी याद है मैंने Atari के video game दिलाने के लिए जमीन आसमान एक कर दिया था लेकिन आखरी तक नहीं मिला और आज भी मेरे पास गाड़ी है बंगला है बैंक बैलेंस है लेकिन video game नही ।
बचपने की ऊर्जा केवल मैदान में अतरंगी तरह के खेल खेलकर के ही निकाल सकते है। पुलिस कैंप में हम कुछ ऐसे ही अतरंगी खेल खेलते थे। पता नही शायद आप लोगो ने वो खेल खेले भी हो लेकिन नाम अलग हो। कुछ खेल का तो मेरा दावा है आपने सुना ही नहीं होगा। SQUID game series से ये तो साबित हुआ की पूरी दुनिया में ये खेलने खिलाने का सिलसिला जारी रहा है और रहेगा।
कंचे /गोटी या मार्बल्स सबसे basic game था, उसमे 10,20..राजा रानी, ऐम इत्यादि खेल खेले है। किसी गोटी पे निशाना लगाना एक बड़ा स्किल है, आप अपनी हर उंगली का स्किलफुली इस्तेमाल कर निशाना लगा के ये खेल जीत सकते है। वैसे मैं इस खेल में बोहोत ” कच्चा लिंबू” था ( वैसे मैं आज तक हर खेल में कच्चा लिंबु ही हु ) मेरा भाई इसमें expert था तो घर में गोटियों का खजाना कुबेर से भी बड़ा था, वो जीतता था और मैं हारता।
बरसात के मौसम में जब जमीन गीली रहती है तब पतली सरिया का इस्तेमाल कर के हम “शिक” खेलते थे। जमीन में एक गोला बना के एक एक कर के उसमे वो सरिया/शीक पटक कर घुसाते थे, जिसका शीक उस गोले में घुस के नही खड़ा हुआ उसके ऊपर डैन आता था..फिर शिक को जमीन पर घुसाते घुसाते किलोमेट्रो तक लेके जाते थे और डैन वाले को आखरी प्वाइंट से इस गोले तक लंगड़ी करते हुए आना पड़ता था
किटी किटी कितना नामक एक खतरनाक खेल भी हमने खेला है जिसको खेलने के बाद खून निकलना या कमर टूटना आम बात थी, दो टीमों में से जिसका भी डैन है वो टीम किसी भी दीवार से एक के पीछे एक घोड़ा बन के खड़े होते है और दूसरी टीम के लोग दौड़कर इनके पीठ के ऊपर चढ़ते है..इसमें कोई जीता या हारा ये खेल खेलने के बाद नही बल्कि बाद में मार पीट कर के ही फाइनल decision होता था, जिसकी लाठी उसी की भैंस
हमारे police camp me 100 साल पुराने बरगद के पेड़ थे, उसके जो ऊपर से जड़े लटकती है उनका इस्तेमाल कर के टार्जन टार्जन खेलने का मजा ही कुछ और था, एक तरफ पेड़ बीच में खाई और दूसरी तरफ हेवी duty pipeline , एक तरफ से लटक कर जो सफलता से पाइप लाइन के ऊपर सुरक्षित लैंड करता था वो ही असली टार्जन होता था, इस चक्कर में पता नही कितने लौंडो के हात पैर टूट गए। इन्ही पेड़ो के ऊपर चढ़ कर सूर पारमब्या नामक खेल भी एक अलग खेल था।
Normal खेलो में भौरा जिसमे शीक के तरह ही डैन होता था और दूसरे के भौरे अपने भौरेे से तोड़ने का खेल बड़ा मजेदार था, गुल्लीडंडा, पतंग, चोर पुलिस और ना जाने क्या क्या..इतने खेल थे की बोरियत का खेलते खेलते time pass हो जाता था। अपने बेटे हो यही सब खेल (दुनिया के खेल तो उसे अपने आप से सीखने पड़ेंगे ) खिलाने सिखाने की कोशिश जारी है…