छत्तीसगढ़ को राज्य बनाने के लंबे आंदोलन में जितनी भूमिका यहां के राजनेताओं ने निभाई, उतनी ही बड़ी भूमिका यहां के स्थानीय पत्रकारों और संस्थानों ने भी निभाई। मध्यप्रदेश के दौर में इंदौर और रायपुर पत्रकारिता के दो ऐसे केंद्र थे, जिनकी गिनती अपनी श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए देशभर में होती थी। इसके बावजूद उस दौर में छत्तीसगढ़ अंचल के जन-सामान्य की तरह यहां की पत्रकारिता भी सुविधाओं के मामले में खुद को उपेक्षित महसूस करती थी। रायपुर के साथ-साथ बस्तर, राजनांदगांव, बिलासपुर, रायगढ़, अंबिकापुर जैसे सुदूर क्षेत्रों में अपनी कलम के माध्यम से शोषितों और पिछड़े हुए लोगों की आवाज बनकर संघर्ष कर रहे आंचलिक पत्रकार तो और भी ज्यादा उपेक्षित थे। सभी को उम्मीद थी जब छत्तीसगढ़ राज्य बनेगा तो जन-सामान्य के साथ-साथ यहां की पत्रकारिता की भी दशा बदलेगी। स्थानीय समाचार माध्यम और ताकतवर होंगे। राज्य निर्माण आंदोलन में स्थानीय समाचार पत्रों और पत्रकारों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले ही यहां के समाचार-पत्रों ने अपने पन्नों के नामों को छत्तीसगढ़-प्रदेश जैसे विशेषणों से अलंकृत कर अपनी भी इच्छाओं को पूरी ताकत के साथ व्यक्त किया था।

राज्य निर्माण से पहले जितनी उम्मीदें थी, निर्माण के बाद उतनी ही निराशा हाथ आई। पत्रकारिता के क्षेत्र में यहां जो संभावनाएं बनीं, उसका दोहन करने के लिए दूसरे प्रदेशों के लोग टूट पड़े। ये ऐसे लोग थे, जिनका इस मिट्टी से न तो कई जुड़ाव था और न ही यहां के लोगों के दुख-दर्द से कोई वास्ता था। इन लोगों ने तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हुए छत्तीसगढ़ को अपना स्थायी चारागाह बना लिया। इन सबसे जैसी गहमा-गहमी मची, वह सीधी-साधी पत्रकारिता करने वाले स्थानीय लोगों के लिए हतप्रभ कर देने वाली थी। यहां के पत्रकार अपनी आंखों के सामने देखते रहे कि लोटा लेकर छत्तीसगढ़ आने वाले फर्जी किस्म के लोगों ने पत्रकारिता की आड़ में कैसे देखते ही देखते कैसे बंगलों पर बंगले बना लिए। ऐसे लोग लाइजनिंग और ब्लैकमेलिंग जैसे गुर अपने साथ लेकर आए और उनका जमकर इस्तेमाल किया। ऐसे तत्वों ने जो सबसे बड़ा नुकसान किया, वह यह कि उन्होंने पत्रकारिता के नाम पर एक ऐसा कल्चर फैला कर दिया, जो पत्रकारिता के साथ-साथ पूरे समाज के लिए घातक है। इसी कल्चर का परिणाम है कि आज पत्रकारिता की आड़ में ब्लैकमेलर करोड़ों रुपए की ब्लैकमेलिंग करने की हिम्मत कर लेते हैं।

दो वर्ष पहले जब भूपेश बघेल की सरकार बनी और छत्तीसगढ़िया संस्कृति तथा स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देने की बात कही गई तो स्थानीय पत्रकारों की उम्मीद फिर जाग उठी। पत्रकारों को यह देखकर संतोष हुआ कि पत्रकार सुरक्षा कानून जैसी बरसों पुरानी मांग पर अब जाकर सुनवाई हुई है। अभिव्यक्ति का जो वातावरण समाप्त हो चुका था, उसके लौट आने की भी आशा जागी। यह भी अच्छा लगा कि नयी सरकार ने अपनी प्राथमिकता में स्थानीय मीडिया और स्थानीय पत्रकारों को रखा है। यह स्थानीय पत्रकारों पर कोई अहसान नहीं था, उन तक उनके अधिकार पहुंचाना ही था। दुखद यह है कि अब इस नये वातावरण में जो बाहरी तथाकथित पत्रकार अपने आपको हाशिये पर खड़ा पा रहे हैं, वे अब छटपटा रहे हैं। इतने सालों तक उन्होंने जिन तकनीकों से कमाई की, वह अब काम नहीं आ रही है।

यह भी देखने में आ रहा है कि ऐसे पत्रकार अपने फर्जी पोर्टलों के जरिये वरिष्ठ अधिकारियों पर दबाव बनाने के तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। ऐसे लोग छत्तीसगढ़ की समरसता की दुहाई देते हुए सरकार पर छत्तीसगढ़िया और गैरछत्तीसगढ़िया का नजरिया अपनाने का आरोप लगाते हुए रोना रो रहे हैं। सकारात्मक आलोचना होनी चाहिए लेकिन below the belt की पीत पत्रकारिता नही होना चाहिए ।अधिकारियों पर दबाव बनाने और उन्हें हतोत्साहित करने के लिए उनके खिलाफ अनाप-शनाप खबरें प्रकाशित करने के जो हथकंडे ये लोग पहले भी आजमाते आए हैं, उसे आज भी आजमा रहे हैं। मुद्दा वे लोग नहीं हैं जो अन्य प्रदेशों से आकर छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता कर रहे हैं, पत्रकारिता के लिए भौगोलिक सीमाएं होती भी नहीं हैं। मुद्दा वे लोग हैं जो अन्य प्रदेश से आकर छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को अपनी पीत-पत्रकारिता से बदनाम कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता की जो श्रेष्ठ छवि पत्रकारों की पीढ़ियों ने तैयार की थी, उसे ये लोग ध्वस्त कर रहे हैं। ये लोग अपने संस्कारों से अपने जैसे पीत-पत्रकारों की फौज खड़ी कर रहे हैं, जो करोड़ों रुपए ब्लैकमेलिंग से कमा लेते हैं। यह समय है below the belt की पत्रकारिता करने वालों और पत्रकारिता से दूर दूर तक सम्बंध नही रखने वालों को मुंहतोड़ जवाब देने और छत्तीसगढ़ में अच्छी शुरुआत करने वालों का समर्थन करने का ।

लेखक – शंकर पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार