रायपुर. छत्तीसगढ़ के राजभवन के दरबार हाल का नाम बदलने के फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए. यह केवल नाम परिवर्तन नहीं, बल्कि सोच और संवेदना में बदलाव का संकेत है. दरबार हाल सुनते ही मन में राजसी वैभव, तामझाम और शाही संस्कृति की छवि बनती थी. मानो हम आज भी राजतंत्र के दौर में जी रहे हों. इस विषय पर पहले भी बोलते लिखते रहे हैं, पर आजादी के 78 वर्ष बाद आज सुखद अनुभूति हो रही है. अगर सरकारी भवनों और संस्थानों में ऐसे नाम बने रहें जो जनता को प्रजा और शासक को राजा की तरह दर्शाए, तो यह लोकतांत्रिक भावना के विपरीत है. ऐसे में यह फैसला लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति एक सकारात्मक कदम है.


लेकिन, एक छोटी सी चाहत बाकी है. क्या नया नाम छत्तीसगढ़ की आत्मा से जुड़ा हुआ रखा जा सकता था? हमारा राज्य अपनी समृद्ध लोक-संस्कृति, बोली-भाषा और परंपराओं के लिए जाना जाता है. ऐसे में यदि दरबार हाल का नाम बदलकर हमर अंगना जैसा कुछ रखा जाता, तो यह केवल एक नाम नहीं बल्कि भावनाओं का प्रतीक बन जाता. हमर अंगना सुनते ही अपनापन, सहजता और लोकसंस्कृति की महक महसूस होती. यह ऐसा नाम होता जो यह संदेश देता कि राजभवन का यह सभागार सिर्फ सत्ता का नहीं, बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ का आंगन है, जहां सबका स्वागत है.
छत्तीसगढ़ी शब्दों की अपनी आत्मीयता है. अंगना या आंगन वह स्थान है जहां लोग बिना औपचारिकता के बैठते, चर्चा करते, खुशी-दुख बांटते हैं. इसे हमर (हमारा) कहने से यह और भी आत्मीय हो जाता है. सोचिए, जब कोई आम नागरिक राजभवन के आमंत्रण पर इस हॉल में पहुंचे और उसका स्वागत हमर अंगना में हो, तो कैसा अपनापन महसूस होगा. यह दूरी कम करेगा. शासन-प्रशासन और जनता के बीच की औपचारिक दीवारों को तोड़ेगा.
नाम केवल पहचान नहीं होते, वे संस्कृति और मानसिकता के दर्पण भी होते हैं. भारत के कई राज्यों ने राजसी या औपनिवेशिक नामों को हटाकर अपने स्थानीय और जनभाषा के नाम अपनाए हैं. इससे जनता में अपनापन बढ़ा है और अपनी संस्कृति पर गर्व की भावना मजबूत हुई है. छत्तीसगढ़ में भी यही होना चाहिए. नाम ऐसा जो सिर्फ पत्थर पर उकेरा न हो, बल्कि लोगों के दिल में भी दर्ज हो.
राजभवन लोकतंत्र का प्रतीक है, और अगर उसका हॉल हमर अंगना कहलाए, तो यह प्रतीक और भी जीवंत हो जाएगा. यह बताने के लिए कि यहां जनता के सपनों, चिंताओं और उम्मीदों के लिए हमेशा जगह है. ठीक वैसे ही जैसे हमारे घर के आंगन में.
इसलिए, मैं इस फैसले के लिए साधुवाद देता हूं, लेकिन साथ ही यह आग्रह भी करता हूं कि आने वाले समय में जब भी ऐसे बदलाव हों, तो उनमें छत्तीसगढ़ी बोली और लोकभावना की छाप जरूर हो. ताकि नाम सुनते ही लगे. हां, यह सच में हमारा है.
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