लेखक- अमन सिंह, प्रमुख सचिव,  मुख्यमंत्री, छ.ग.

तकनीक हवा सी रफ़्तार वाले तेज़ घोड़े सरीखी है. उसकी सवारी ऊर्जा से भरी और उत्साह से लबरेज़ होती है. परन्तु उस पर सवार व्यक्ति कितना ही सिद्ध क्यूँ ना हो, ज़रा सी चूक उसे नीचे गिरा सकती है.

ऐसा ही कुछ विश्वास के साथ है. विश्वास घड़े में जतन से सहेजा हुआ वह जल है जो ज़रा से सुराख से धीरे-धीरे रीस जाता है. उसकी दीवारें इतनी मजबूत होतीं हैं कि विश्वास को सहेज सकें, जब तक कोई अपना या पराया उसे खंडित ना कर दे. दूसरा पहलू भी है. विशवास की चंद बूंदें घड़े को हमेशा लबालब रखतीं हैं. यह सब इससे तय होता है कि इर्द-गिर्द किस तरह के लोग थे. सुराख करने वाले या विश्वास में इजाफा करने वाले.

तकनीक और विशवास के एक नए पहलू से मुझे कुछ दिन पहले रूबरू होने का मौक़ा मिला. अड़तालीस घंटे के घटनाक्रम ने न केवल स्वयं के सम्बन्ध में मुझे नई दृष्टि प्रदान की बल्कि दूसरों के सम्बन्ध में भी मेरा नजरिया बदल गया है. अनुभव नकारात्मक हों या सकारात्मक, हमारे दृष्टिकोण को हमारे नज़रिये को प्रभावित करते हैं. इस सिलसिले में मुझे कुछ दिन पहले अपने जीवन का नायाब अनुभव हुआ है. सरकारी काम के सिलसिले में हम कई काम ऐसे करते हैं, जो बहुत गोपनीय होते हैं और जिनको लेकर मीडिया में बड़ी जिज्ञासा होती है. हुआ यह कि मेरे ‘स्मार्ट फ़ोन’ से एक गोपनीय नोट अनजाने में एक ऐसे व्हाट्स- एप ग्रुप में चला गया, जिसमें 75 सदस्य हैं और सब प्रखर पत्रकार हैं. धन्य है, वह पत्रकार साथी जिन्होंने गोपनीय नोट ग्रुप में पोस्ट किये जाने कि सुचना दी.मुझे तो बहुत समय यह एहसास करने में लगा कि इतनी बड़ी चुक हो गयी है. वास्तव में वह जानकारी आधिकारिक रूप से प्रकाशित होने के लिए 48 घंटे का वक्त था और वह जानकारी 75 प्रखर पत्रकारों के मोबाइल फ़ोन में थी. जो निश्चित तौर पे एक अनिश्चितता और चिंता का सबब थी.

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उस नोट पर आधारित खबर का प्रकाशित या प्रसारित होना ब्रेकिंग न्यूज़ था लेकिन प्रशासनिक दृष्टि से घातक था. यह समझ में आ गया था कि तीर तरकश से निकल चूका है और अब उसे वापस लाना तो संभव ही नहीं है. जानते हुए भी कि इसका कोई समाधान नहीं है मैंने अपने साथियों से परामर्श किया तो सबने अपने अपने अनुसार सुझाव दिए. इनमें से कोई भी परामर्श निदान कर सकने में समर्थ नहीं दिख रहा था. अभी तो सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि आज के ब्रेकिंग खबर के दौर में हाथ में पहुंचे हुए सममाचार को सामाजिक होने से रोका कैसे जाये. ऐसे मौके पर अतीत के अनुभवून को आधार बनाते हुए अपने विवेक से एक फैसला लिया. यह फैसला मेरे ढाई दशक के सामाजिक जीवन के उस अनुभव पर आधारित था, जो यह एहसास कराता रहा कि सार्वजिक जीवन कि सबसे बड़ी पूंजी ‘विशवास’ है, जो आपके काम करने के तरीके और उके पीछे की नियत के आधार पर ही निर्मित होता है. मीडिया के सम्बन्ध में भी इस तथ्य को झुटलाया नहीं जा सकता कि जनहित, राज्यहित अथवा राष्ट्रहित का अगर विषय हो तो वह आपका साथ देती है.

पत्रकार साथी गोपनीयता और निजता की रक्षा करते हैं बशर्ते कार्य को लेकर उनका भरोसा हो कि यह जनहित या राष्ट्रहित की दृष्टि से जरूरी हो. हालांकि इन निजी अवधारणा में कुछ खतरे भी थे. यहाँ चंद पत्रकार मित्रों को लेकर विषय नहीं था, यह 75 मीडिया कर्मियों पर सामूहिक भरोसे का मसला था. फिर भी मैंने उस वक्त दिल की सुनी और सब पर सामूहिक बह्रोसा करने का फैसला किया. इसके तहत उसी ग्रुप में एक सन्देश अपनी तरफ से पोस्ट किया कि ‘आतंरिक समन्वय के लिए तैयार किया गया एक नोट अनजाने में इस समूह में गलती से पोस्ट हो गया है मीडिया के मित्रों से अनुरोध है कि वे इसे प्रसारित ना करें और ना ही इसका उपयोग करें. कृपया इसे डिलीट कर दें. आप हमेशा मेरे मददगार रहे हैं इस सहयोग के लिए मैं आपका आभारी रहूँगा.’

इस सन्देश में प्रतिक्रया इस लेख कि बुनियाद है. कुछ साथियों ने तो ग्रुप में ही पोस्ट कर वादा किया कि वो इस पोस्ट का कोई उपयोग नहीं करेंगे. कुछ ने फ़ोन करके सहमती दी. आश्चर्यजनक रूप से किसी भी पत्रकार साथी ने उस पोस्ट का किसी भी रूप में उपयोग नहीं किया. शायद यह भरोसा ही छत्तीसगढ़ कि तासीर और पहचान है. यह पूरा घटना क्रम तमाम सबक छोड़ गया.  फिर भी तीन सबक ऐसे हैं जो आप से साझा करने हैं.

पहला सबक, टेक्नोलोजी के वरदान से अभिशाप बनने की दूरी सिर्फ एक क्लिक कि होती है. इसलिए टेक्नोलोजी कौप्योग करने से पहले सुरक्षात्मक उपायों कि जानकारी ज़रूर रखनी चाहिए. एक हद से ज्यादा तकनीक पर भरोसा किस तरह अभिशाप बन सकता है, इस घटना क्रम ने मुझे सिखाया है. तकनीक हमारी ज़िन्दगी को आसन बनाती है तो हमें  कठिन हालात में भी डाल सकती है.

दूसरा सबक बेहद मानवीय है कि यदि ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी आपके अलावा किसी और से, किसी सहयोगी द्वारा लीक होती है तो आपका रवैया क्या होता. क्या आप उतने ही सहिष्णु होते जितने खुद के लिए. और इससे मुझे सरकार के काम काज के दौरान, अपने सहयोगियों के साथ व्यवहार के दौरान, उनके पहलु को समझने और उनपर विशवास करने कि सिख मिली.

तीसरा सबक मीडिया को लेकर यह है कि लोकतंत्र का यह तीसरा स्तम्भ आज भी अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति उतना ही जवाबदेह और समर्पित है जिसकी अपेक्षा अमाज चिरकाल से रखता चला आ रहा है. यह अनुभव मीडिया के प्रति हमारे मन में सम्मान और विशवास को बढ़ता है. लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्र और चैनलों के पत्रकारों ने खबर हाथ में आने के बावजूद हालत को समझते हुए जिस तरह से भरोसे को कायम रखा वह अनुकरणीय है. इस घटना में साबित हुआ कि सबकुछ समाप्त कभी नहीं होता. हमेशा कुछ सकारात्मक बचा रहता है. उसे हासिल करने का एक ही तरीका है- सबका आप पर विशवास. तकनीक के घात के बावजूद इन नाजुक पलों में मीडिया के साथियों ने अपनी भरोसे कि बूंदों से विशवास के घड़े को लबालब कर दिया. कहतें हैं कि सबक ठोकर खाने के बाद हासिल होते है. लेकिन इस घटना के बाद सुखांत ने भी शिक्षक बनकर मुझे जो सबक दिए हैं वे जीवन पर्यंत स्मरण रहेंगे.

                                                                                                      (यह लेख लेखक के व्यक्तिगत विचारों पर आधारित है)