आज 2 अक्टूबर है. गांधी जी पर बहुत विचार आएंगे. स्थापित विद्वान विचारक अपनी-अपनी बौद्धिक ऊर्जा एवं भाव सामर्थ्य के अनुसार गांधीजी के जीवन दर्शन पर प्रासंगिक सामयिक विचार लिखेंगे. मैं सभी के पूज्य विचारों को नमन करते हुए बहुत संक्षिप्त में मैंने जो समझा है उसके अनुसार गांधी जी पर अपने विचार ‘गांधी के राम’ आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं. मेरे विचार से गांधी जी कोई मात्र व्यक्ति नहीं थे, वह एक विचारधारा हैं, जीवन पद्धति हैं, विराट भारत के अस्तित्व बोध को अपने वक्ष स्थल में समेटे हुए थे. जब किसी व्यक्ति का सिद्धांत उसकी विचारधारा, उसकी सोच हिमालय से कन्याकुमारी तक सभी वर्ग, जाति, संप्रदाय को मान्य हो जाती है, स्वीकार्य हो जाती है, तब विचार मात्र विचार नहीं रह जाते सिद्धांत बन जाते हैं. जब सभी वर्ग विचारधारा और मान्यता को जिस व्यक्ति के सिद्धांत पूज्य हो जाते हैं तब व्यक्ति फिर व्यक्ति नहीं रह जाते, राष्ट्र का बिंब बन जाते हैं .राष्ट्र की पहचान बन जाते हैं और कहे तो राष्ट्र का स्वर बन जाते हैं.

गांधी की राह में एक उदारवादी सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना है. झोपड़ियों से लेकर अट्टालिका तक का चिंतन है, उस चिंतन में बंधुत्व अपनी परिभाषा को पाता है. सामाजिक समरसता की प्राण प्रतिष्ठा होती है. गांधी के राम एक उदार सहिष्णु और समदर्शी राम हैं. रामचरितमानस की यह चौपाई प्रासंगिक लगती है

“पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई”

गांधी के राम हमें इस ओर संकेत करते हैं. उन्होंने भारत की नब्ज को समझा था. वह जानते थे कि अन्य राष्ट्रों की भांति भारत का नाड़ी केंद्र विज्ञान और व्यवसाय नहीं है, बल्कि भारत का नाड़ी केंद्र धर्म है. उन्होंने धर्म को ही हम सभी के समझने योग्य पाप और पुण्य की परिभाषा दी, उन्होंने अपने विचार में कहा परहित के जैसा कोई धर्म नहीं है, पर पीड़ा से बड़ा कोई पाप नहीं है. गांधी जी के प्रेरणा भजन में इसका भाव प्रतिध्वनित होता है-

वैष्णव जन तो तेने कहिये,
जे पीड परायी जाणे रे ।
पर दुःखे उपकार करे तो ये,
मन अभिमान न आणे रे

गांधी जी के प्रेरणा वाक्य आज भी अपना अस्तित्व ढूंढ रहे हैं. हमने अपनी सहजता सरसता खो दी है. हमारे स्वभाव में निसंदेह है शुष्कता, निष्ठुरता आई है. अहिंसा के भाव गौण होते जा रहे हैं. हिंसा का अट्टहास हमारे भारत के धवल समृद्ध इतिहास को मानो चुनौती दे रहे हैं. सामाजिक स्वच्छ संरचना के लिए गांधी के राम की परिभाषा आज भी प्रासंगिक है. गांधी के राम हमें संकीर्णता का त्याग कर उदार एवं संवेदनशील होने का आग्रह करते हैं.

गांधी के ग्राम स्वराज की कल्पना और गांधी जी द्वारा की गई रामराज के कल्पना ने अपना कितना यथार्थ स्वरूप पाया है. हमारे लिए आत्म चिंतन का विषय है. रामचरितमानस में वर्णित रामराज को यदि हम वर्तमान परिदृश्य में देखें तो गांधी के राम व्यथित दिखाई देते हैं.

रामराज के लिए गोस्वामी जी ने लिखा-

“जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई”

इस चौपाई पर भारत के सभी नागरिकों को गंभीर होने की आवश्यकता है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमने नगरीय प्रशासन पर ध्यान दिया, पर एक योग्य एवं जिम्मेदार नागरिक बनाने की दिशा में हमारे प्रयासों में कमी रह गई. गांधी के राम श्रेष्ठ सद्चरित्र जिम्मेदार नागरिक की ओर संकेत करते हैं. गांधी के प्रेरणा वाक्य को आचरण में लाने की आवश्यकता है. यदि हम इतना करने में सफल हो गए तो गांधी जी को यही हमारी सच्ची भावांजलि हो जाएगी.

संदीप अखिल
सलाहकार संपादक
लल्लूराम डॉट कॉम/न्यूज़ 24एमपीसीजी

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