रायपुर। पाइका नाच, जनजातीय नाच शैली है। अब भी ओड‍िशा और झारखंड ने इसे सहेज रखा है। समूह में प्रदर्श‍ित होने वाली इस नाच में कलाकार पारंपरिक युद्ध की अभिव्यक्ति करते नजर आते हैं। पुरुष प्रधान यह नाच खुले मैदान में बेहतर तरीके से प्रदर्श‍ित होता है। यह दीगर बात है क‍ि अब इसकी मंचीय प्रस्‍तुत‍ि भी होने लगी है। इस नाच में कलाकार जहां अपने हाथों में तलवार और ढाल ल‍िए सैन‍िक की तरह नजर आते हैं, वहीं कुछ कलाकार नगाड़ा, ढोल, शहनाई और स‍िंंघा बाजा बजाते हुए युद्ध का पर‍िवेश तैयार करते द‍िखते हैं। कलाकार रूपी सैन‍िकों के पैर में बंधे घुंघरू युद्ध के व‍िभ‍िन्‍न चरणों की प्रस्‍तुत‍ि के दौरान हर दृश्‍य को आकर्षक बनाता है।

इस जनजातीय नाच के जन्‍म की कहानी बेहद द‍िलचस्‍प है। इसे जानने के ल‍िए आपको थोड़ा इत‍िहास की ओर लौटना होगा। इस नाच का सीधा संबंध पाइक व‍िद्रोह से है। वर्ष 1817 में ओड‍िशा में ब्रिटिश हुकूमत के ख‍िलाफ हथ‍ियारबंद व‍िद्रोह हुआ था। इसे हाल के वर्षों में भारत का प्रथम स्‍वतंंत्रता संग्राम घोष‍ित क‍िया गया है। वजह- यह 1857 के गदर से पहले हुआ था, लेक‍िन इसे ठीक से मान्‍यता नहीं म‍िली। वर्तमान केंद्र सरकार ने लंबे आंदोलन के बाद इसे प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम मान ल‍िया है। संभव है आने वाले द‍िनों में इसे पाठय पुस्‍तकों में भी पढ़ाया जाए। इस व‍िद्रोह के नायक थे- बख्शी जगबंधु। अंग्रेजों ने व‍िद्रोह‍ियों को खूब सताया था। कत्‍ले-ए-आम क‍िया था। बख्‍शी जगबंधु को ब्र‍िट‍िश स‍िपाह‍ियों ने वर्ष 1825 में पकड़ ल‍िया। जेल में डाल द‍िया। जेल में ही उनकी मौत हो गई।

इस व‍िद्रोह का नाम पाइका व‍िद्रोह क्‍यों पड़ा। दरअसल, पाइक शब्‍द से ही पाइकर शब्‍द भी बना है। इसका शाब्‍द‍िक अर्थ होता है- राशन सामग्री आपूर्त‍ि करने वाला। कंवर जनजाति पांच उप जातियों में विभाजित है- चेटरी, चरवा, दूध, पाइकर और रौतिया कंवर। इनमें दूध कंवर उप जात‍ि को श्रेष्‍ठ माना जाता है। इसी जनजातीय समुदाय ने इस व‍िद्रोह का नेतृत्‍व क‍िया था ये पेशे से क‍िसान थे। लेक‍िन इनका एक असंगठित सैन्‍य दल भी था, जो युद्ध होने पर ओड‍िशा के तत्‍कालीन राजाओं की मदद करता था।

ब्रिट‍िशा शासकों ने 1803 में ओड‍िशा पर कब्‍जा कर ल‍िया। इतना ही नहीं ओडिशा के राजा मुकुंद देव के संरक्षक जय राजगुरु की हत्‍या कर दी। तब राजा मुकुंद देव नाबाल‍िग थे। इस घटना ने पाइका व‍िद्रोह‍ियों को और उग्र कर द‍िया। क‍िसानों के इस असंगठ‍ित सैन्‍य दल ने व‍िद्रोह कर द‍िया। वर्ष 1817 में शुरू हुआ यह व‍िद्रोह तेजी से चहुंओर फैलता गया। ओड‍िशा के गंजाम और कंधमाल ज‍िले के अन्‍य आद‍िवासी भी इस व‍िद्रोह में कूद पड़े। इसकी गूंज हर ओर सुनाई देने लगी।

बहरहाल, आगे चलकर इसी घटना की अभ‍िव्‍यक्‍त‍ि के रूप में पाइका नाच का जन्‍म हुआ। इस समुदाय के लोगों ने नाच के माध्‍यम से तत्‍कालीन सैन्‍य क्र‍ियाओं का प्रदर्शन करना शुरू कर द‍िया। इस नाच को देखते समय आप इस बात को महसूस कर सकते हैं। कलाकारों की हर गत‍िव‍िधि‍ पारंपरकि युद्ध और सैन‍िकों के तौर-तरीकों को दर्शाती है।

इसी पाइका नाच को आगे चलकर झारखंडी समाज के सशक्‍त हस्‍ताक्षर डा. रामदयाल मुंडा ने दुन‍िया के कोने-कोने में पहुंचा द‍िया। इसे जन-जन का नाच बना द‍िया। इस नाच में वह खुद भी साथी कलाकारों के साथ सहभागी होते थे। अभ‍िनय करते थे। भारत सरकार ने उन्‍हें पद्मश्री से सम्‍मान‍ित भी क‍िया था।

लेखक- एम अखलाक