बहुत से मित्रों को ,बुद्धिजीवियों को, जो संविधान और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में गहरी आस्था भी रखते हैं, लगता है कि राहुल गांधी को सदन में संयम से बोलना था. इस बीच ऐसा सोचने वाले और भी लोग मिले.

कुछ सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कुछ इसे लेकर चर्चा भी कर रहे हैं. मतलब भारत माता की हत्या या देश द्रोही जैसे विशेषणों का इस्तेमाल नहीं करना था. कोई शक ही नहीं कि संयम,सहनशीलता,शालीनता,विनम्रता ये तो सार्वजनिक जीवन की बहुत बड़ी जरूरत है. आज इन्हीं मानवीय मूल्यों पर तो संकट है.

लोकसभा की इस बहस से अलग कुछ मित्र आमतौर पर तटस्थ भी रहना चाहते हैं. इनमें कवि,कलाकार,लेखक,पत्रकार से लेकर अफसर नेता भी शामिल रहते हैं. अभी बस समझना इतना है कि मणिपुर में दो महिलाओं के साथ जो हुआ,जिस क्रूरता को लिख पाना भी मुश्किल है, वो क्यों हुआ ? समझना बस इतना है कि वो कौन पत्रकार और कौन नेता हैं जो मणिपुर की इस भयानक घटना की बात करते–करते स्क्रीन पर रो पड़े और क्यों ? ऐसा कब होता है ये समझना है ? समझना इतना है कि मणिपुर की तबाही की वजह क्या हैं ?कौन हैं इसके पीछे? समझना इतना है कि देश में अगर दो सुरक्षा बल आमने–सामने हो जाएं तो क्या सत्ता पक्ष वहां से गायब है? और नहीं तो उसकी उपस्थिति क्या उन्माद को भड़काने वाले की है या शांत करने वाले की ?

समझना बस इतना है कि क्या हम इतने अनजान हैं कि हमें मणिपुर का सच नहीं पता ! समझना इतना है कि देश के सबसे बड़े सत्ताधीश का मणिपुर पर मौन क्यों था और जब बोले तो क्या बोले ? समझना इतना था कि जब उन्हें गुजरात दंगों के समय राजधर्म के पालन की सीख उनके ही अपने नेता ने दी थी तो क्या उन्होंने इस सीख का पालन किया ? समझना बस इतना है कि आज इस देश के ऐसे खौफनाक माहौल का जिम्मेदार कौन है कि ट्रेन में एक सिपाही सचेतन ही तीन निर्दोष यात्रियों और एक अपने ही वरिष्ठ को गोलियों से भून देता है और वहां मौजूद आम यात्रियों को संबोधित करते हुए एक तरह से आदेश देता है – वोट मोदी जी,योगी जी को ही देना! ये तीन यात्री मुसलमान थे. लेकिन ना तो कोई उसे रोक पाया और न प्रतिवाद कर पाया.कर भी नहीं सकते थे.वो उन्मादी अंधाधुंध गोलियां भी बरसा सकता था. समझना इतना है कि क्या इस उन्माद और सांप्रदायिक नफरत से प्रेरित हिंसा के लिए कड़ी निन्दा जैसे शब्दों का इस्तेमाल अच्छा रहेगा?

समझना बस इतना है कि राहुल गांधी अपनी भारत यात्रा की समझ के बाद और फिर मणिपुर का सच आंखों से देख लेने और पीड़ितों का दर्द सुन लेने के बाद किन शब्दों का प्रयोग करते ? समझना बस इतना है कि जलते हुए मणिपुर को अगर हम देख आते,अगर हम उस जुलूस के गवाह होते जिसमें दो महिलाएं अमानुषिक यातना का शिकार हुईं,अगर वहां हमसे कोई मां कहती कि उसके छोटे बच्चे को उसकी आंखों के सामने गोली मार दी गई तो हम कितना विचलित होते? समझना इतना है कि क्या देश को और मणिपुर चाहिए? समझना यह भी है कि देश को कितने मोनू मानेसर चाहिए? क्या जब तक दस बीस करोड़ मोनू मानेसर पैदा न हो जाएं ,जब तक मॉब लिंचिंग की असंख्य घटनाएं ना होती रहें तब तक सार्वजनिक जीवन विनम्रता और संयम से भरपूर रहे ?

समझना बस इतना है कि क्या आज नरम शब्द ही हमारे आभूषण रहें ? इस खौफनाक दौर में विचलित होने का कोई पैमाना ढूंढ लिया गया हो तो समझना है. कहीं पढ़ा था कि हिटलर ने जब एक कवि को गिरफ्तार किया तो उसकी बेटी ने अपनी मां से पूछा कि उसके पिता को क्यों गिरफ्तार किया गया.तब मां ने कहा कि उन्होंने हिटलर के खिलाफ कविता लिखी थी.मासूम बच्ची ने पूछा कि जवाब में हिटलर भी कविता लिख सकते थे. जवाब था कि हिटलर कविता लिख सकता होता तो पिता को गिरफ्तार क्यों करता ! सवाल है कि हम इतिहास से कुछ सीखें ? क्या आज देश में कविता लिखने का प्रशिक्षण दिया जाए ? समझना उन मित्रों से बस इतना है कि उनका अपना दिल क्या कहता है?
क्या लोकतंत्र खतरे में है ? अगर है तो उसे बचाने के लिए क्या करें ? जब संसद तक में बोलने पर पहरे हों तो क्या करें ?
जब चंद उद्योगपति सारा मीडिया विमर्श संचालित कर रहे हों,लोगों के मस्तिष्क पर कब्जा कर रहे हों ,तब उपलब्ध अवसरों पर क्या किया जाए बस यह समझना है? अगर इस खौफनाक दौर में दिल की बात को कहने के लिए शब्दकोश साथ रखना हो तो समझना है कि क्या भारत माता सांस भी ले सकेंगी? जब देश में हिंदू राष्ट्र का घोष हो तब धर्मनिरपेक्ष संविधान में आस्था रखने वाली भारत माता का दम नहीं घुटेगा? समझना यही है कि भारत माता की हत्या जैसा विशेषण क्या ऐसे ही दर्द से नहीं निकलता? मणिपुर किस प्रोजेक्ट के तहत जल रहा है? आपको क्या लगता है?
भारत माता को क्या लगता होगा? बताना सिर्फ इतना है कि राहुल गांधी ने लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया.
ना उन्हेंने,ना कभी उनकी बहन प्रियंका गांधी ने और मां सोनिया गांधी ने तो शालीनता की अलग ही मिसाल इस देश के सामने रखी है.

समझना इतना है कि अगर वो राहुल गांधी अपने आक्रोश को कुछ शब्दों से अभिव्यक्त करते हैं तो उन्होंने क्या गलत किया?
राहुल गांधी ने बंदूक नहीं उठाई,शब्द ही उठाए हैं. समझना हो तो उनके आक्रोश को समझिए जो देश के एक बड़े हिस्से का आक्रोश है. ये समय साफ सामने आने का है. आ सकें तो देश का भला होगा अन्यथा शब्दकोश तो हैं ही. समझना बस इतना है कि विनम्रता और तटस्थता के शब्दकोश को बंद कब करना होगा ?

( लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं)