रायपुर. विजयदशमी के पावन पर्व पर आप सभी को शुभकामनाओं के साथ यह विचार पुष्प समर्पित है, वैसे रामायण के सभी पात्रों पर श्रेष्ठ स्थापित साहित्यकार अपने विचार रखते आ रहे हैं नरेंद्र कोहली जी की राम कथा, महासमर आचार्य चतुरसेन की वयं रक्षामः, निराला जी की राम की शक्ति पूजा|| कहने का आशय यह है कि श्री राम और रावण युद्ध पर बहुत सारी बातें कही गई हैं हर वर्ष विजयादशमी पर इस विषय पर अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार भाव विलास होता है और विजयादशमी पर्व मनाया जाता है.
श्री राम और रावण का युद्ध 84 दिन हुआ था। ना जाने कितने वर्षों से हम रावण के पुतले दहन करते आ रहे हैं पर रावण है की मरता ही नहीं, हर वर्ष उसे मारना पड़ता है! रावण के पुतले की ऊंचाई दिन प्रतिदिन बढ़ाई जा रही है कभी-कभी तो यह प्रतिस्पर्धा का भी संदर्भ बन जाता है.
आप से मेरा सवाल यही है कि अधिक ऊंचा रावण का पुतला हमारे लिए गर्व का संदर्भ है या आत्मचिंतन का इसे हमें विचार करना चाहिए. बहुत संक्षिप्त में मैंने जो पढ़ा है, जाना है उसके आधार पर विषय को रखना चाहता हूं. प्रश्न है कि रावण मरता क्यों नहीं है हर वर्ष हमें क्यों मारना पड़ता है वास्तव में रावण कोई आकृति नहीं है रावण एक प्रकृति है, एक सोच है एक विचारधारा है रावण राक्षस संस्कृति का संपोषक था.
सुरत्व और असुरत्व दो विचारधारा है जब व्यक्ति का समग्र चिंतन प्रकृति के साथ लयबद्धता स्वीकार कर लेता है जीवन का संगीत सुर में हो जाता है उसमें आनंद उल्लास बंधुत्व और सहअस्तित्व की झंकार होती हैं. सुरत्व देव की वंदना हैं, और वही चिंतन जब प्रकृति के नियमों का उल्लंघन कर देता है. उद्दंड हो जाता है स्वेच्छाचारी और अहंकारी हो जाता है तो वह प्रकृति के मधुर स्वर को विखंडित कर देता है. प्रकृति का संतुलन बिगाड़ देता है. ईर्ष्या राग द्वेष अहंकार का सृजन कर देता है. और यही है दानव या राक्षसी प्रवृत्ति, देवत्व जहां समस्या में समाधान देता है. वहीं राक्षसी चिंतन समाधान को ही समस्या बना देता है.देव संस्कृति में प्रकृति पुरुष के साथ संतुलन होता है प्रकृति के मानव मूल्यों का वंदन होता है, वही असुर संस्कृति में असंतुलन और क्रंदन होता है.
श्री राम देव संस्कृति की स्थापना का संकल्प है तो वहीं रावण असुर संस्कृति का उद्द्घोषक संपोषक है असहजता का सृजन करना उसका संकल्प है। प्रश्न अभी भी घूम रहा है की रावण मरता क्यों नहीं है रावण की मृत्यु हुई या रावण का अंत एक छोटे से संदर्भ में इस विषय को समझने का प्रयास करते है. पंचवटी में शूर्पणखा के साथ जो घटित हुआ वह हम जानते हैं. शूर्पणखा अपने कक्ष में मद्धम दीपशिखा के प्रकाश में सोच रही थी की जो घटना उसके साथ घटित हुई है. उसका प्रतिशोध कैसे लिया जाए उसी समय एकाएक खिड़की खुली श्वेत की आकृति आकर खड़ी हो गई शूर्पणखा चौक गई और उसने कहा कौन है?
प्रति छाया से आवाज आई बेटी मैं हूं विश्वश्रवा. तुम्हारा पिता, शूर्पणखा ने बोला पिताजी आप वो आश्चर्य से भरी हुई थी तब उन्होंने कहा बेटी जो कार्य पिता का पुत्र नहीं कर पाता है वह कई बार पुत्रियां करती हैं, शूर्पणखा ने अपनी आपबीती सुनाई तो उनके पिता ने कहा कि इसीलिए मैं यहां आया हूं मैं रावण को रामशरण में भेजना चाहता था पर उसका अहंकार उसकी महत्वाकांक्षा ने उसे बाधित कर दिया है.
वो कहते हैं पुत्री अहंकार संतृप्त भूमि में आस्था के पुष्प नहीं खिलते हैं, अब तुम्हें यह कार्य करना है तुम्हें रावण को राम की शरण में भेजने का माध्यम बनना है. उसे प्रेरित करना है. शूर्पणखा ने कहा त्रिलोक विजयी रावण स्वयं संचालित है. उसे कोई प्रेरित नहीं कर सकता, तो उन्होंने कहा पुत्री यदि वह प्रेरित नहीं हुआ तो तुम उसे उद्वेलित और विचलित कर सकती हो, शूर्पणखा से कहते हुए कहते हैं की मैं राम के हाथों रावण की मृत्यु नहीं चाहता मैं उसका अंत चाहता हूं, शूर्पणखा ने कहा पिताजी मृत्यु और अंत तो एक ही होता है ना??उन्होंने कहा की पुत्री मृत्यु और अंत में अंतर होता है, तो मृत्यु में जीवन का विस्मरण होता है और अंत में जीवन का चिरस्मरण होता है!
अब हमारे समझने वाली बात यह है कि लोग अपने अहंकार महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या राग द्वेष नहीं छोड़ेंगे तो आज आप दसकंठ बन सकते हैं पर सुकंठ नहीं बन सकते हैं, जैसे जैसे समाज अपनी सहजता उदारता बंधुत्व, सदाचारिता वैचारिक पवित्रता छोड़ता जाएगा जीवन मूल्य बौने होते जाएंगे और रावण के पुतले की ऊंचाई बढ़ती जाएगी ।जिस दिन समाज रावण के इस रहस्य के मंतर को समझ जाएगा वह रावण की मृत्यु और अंत के अंतर को समझ जाएगा.
आप सभी को विजयदशमी की शुभकामनाएं
लेखक – संदीप अखिल
सीनियर एडवाइजर न्यूज 24 मद्यप्रदेश /छत्तीसगढ़