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विवेकहीन हत्याएं इन कथित माओवादियों की पहचान बन गई है. ना लोकतंत्र पर बात करते, ना लोकतंत्र के सामने खड़ी चुनौतियों पर इनकी कोई साफ राय है और ना गरीब जनता के रोजी रोटी के सवाल इनका एजेंडा है. राजनीति के नाम पर बस फोर्स के खिलाफ बुद्धिहीन सैनिक कार्रवाई ही इनके खाते में दर्ज रह गई है. ये परास्त होंगे. इन्हें न संसदीय लोकतंत्र के विराट स्वरूप का अंदाज है, ना ही एक राज्य के रूप में भारत देश की ताकत का. इन्हें लोकतंत्र की दृढ़ता का अंदाज ही नहीं है.
लोकतंत्र तो जिंदाबाद था, है और रहेगा लेकिन हथियारबंद, दिशाहीन, हिंसक माओवादी गुट सिर्फ मुर्दाबाद ही होंगे. आज बस्तर जैसे इलाके में बदलाव ढेर सारे पैमानों पर नई इबारत लिख रहा है. सदियों का अंधेरा था, लोकतंत्र रोशनी लेकर पहुंच रहा है. अभी तो हर कोने को रोशन होना है. अभी तो लड़ाई बहुत लंबी है. अभी तो लोकतंत्र के पैरों में छाले पड़ने शुरू ही हुए हैं. ये छाले लोकतंत्र के विचार को और मजबूत बना रहे हैं.
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लोकतंत्र के विचार पर आज इस देश में कई तरफ से हमले हो रहे हैं. लोकतंत्र को कमजोर करने की साजिश या संविधान की धज्जियां उड़ाने की कोशिश सिर्फ माओवादी नहीं कर रहे हैं. दीवालिया विचारों की फौज सिर्फ माओवादियों की नहीं है. दीवालिया विचार हिंसा का दूसरा सिरा थामे अलग उन्मादी राग के साथ फैल रहे हैं लेकिन ऐसे हर दीवालिया विचारों का मुकाबला लोकतंत्र भी एक विचार की तरह करने में सक्षम है.
एक तरफ लोकतंत्र की इस मशाल को, विचारों से बुझाने में नाकाम माओवादी, बारूद लगाकर मिटाना चाहते हैं, तो दूसरी तरफ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बनकर एक विचारधारा नफरत और उन्माद को अपना औजार बनाकर लोकतंत्र को कमजोर करना चाहती है. बहस पुरानी है लेकिन हर कसौटी पर खरा तो हर बार लोकतंत्र ही साबित हुआ है और होगा भी. बस्तर की जनता ने चुनाव बहिष्कार के माओवादी नारों को कूड़ेदान में पटक दिया है. फोर्स वहां अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने तैनात है इसलिए उस पर हमला सबसे बड़ा टास्क है.
किसानों, खेत मजदूरों को पुलिस मुखबिर घोषित कर मार डालना इनकी हिंसक जरूरत है. हथियार इतने तो हैं कि सिमटते-सिमटते भी बहुत खून बिखेर जाएंगे, लेकिन ये न संसदीय लोकतंत्र के धैर्य से परिचित हैं ना उसकी प्रतिबद्धता और न ही दृढ़ता से. जिन्हें ये कथित तौर पर अपने इलाके कहते हैं वहां कौन नफरत के बीज बो रहा है, भोले भाले लोगों को हिंसा के लिए उकसा रहा है क्या ये नहीं जानते ? लेकिन बंगाल में एक पार्टी से इनका नापाक गठबंधन उजागर हो चुका है. अब ये छत्तीसगढ़ में नफरत की खाद को अपने लिए मुफीद मान रहे हैं.
ये भूल गए कि बंगाल में इनके साथ क्या हुआ था. इन्हें छत्तीसगढ़ की जनता मतदान केंद्रों पर फिर से लंबी लंबी लाइनों में लगकर आइना दिखाएगी. बस्तर में आज हुए माओवादी हमले में बहा खून मतपत्र की शक्ल में जल्दी ही कतारबद्ध खड़ा होगा. अभी बस्तर में संसाधनों की लूट और फोर्स की ज्यादती के सवाल भी आने ही वाले होंगे. इन सवालों से परे बड़ा सवाल यह है कि रास्ता किधर है ? क्या नक्सल लेवी इसका उपाय है ? ऐसी हर लड़ाई लोकतंत्र के दायरे में लड़ी जा सकती है.
मेधा जी जैसी संघर्ष की कहानियां इस देश में बिखरी पड़ी है. उन्होंने ना हथियार उठाया ना हिंसा की वकालत की. वो खुश नहीं हैं, पर थकी नहीं हैं. अन्याय के खिलाफ उनकी आवाज बुलंद रहती है. उन्होंने हिंसा को जायज ठहराया हो ऐसा याद नहीं पड़ता. दरअसल ये लड़ाई किसी एक सरकार या पार्टी की नहीं है. ये संसदीय लोकतंत्र की हिफाजत की लड़ाई है. लड़ी तो जाएगी ही. दृढ़ता से लड़ी जाएगी.
( लेखक रुचिर गर्ग छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं)