मध्यप्रदेश के एक शुक्ला के एक आदिवासी बालक के सिर पर पेशाब करने की घटना से हममें से कितने विचलित हुए हैं ? प्रवेश शुक्ला नाम के इस व्यक्ति के राजनीतिक, सामाजिक संस्कार क्या थे, पृष्ठभूमि क्या थी इससे इतर सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हम सबने खुद को एक संवेदनहीन, बर्बर, सामंती समाज का हिस्सा होना स्वीकार कर लिया है ? क्या हम इस बात पर विचार करना चाहते हैं कि आजादी के बाद हमने जिस प्रगतिशील, आधुनिक भारत की ओर कदम बढ़ाए थे उस भारत देश को मध्ययुगीन दलदल में धकेला जा रहा है ?

इस शुक्ला की क्रूरता अनायास नहीं हैं. ना यह नशे की हालत में की गई हरकत है. यह उत्पीड़कों की बढ़ती अहंकारी ताकत का प्रतीक है. यह जाति, धर्म, दौलत, सत्ता हर लिहाज से एक उत्पीड़क का काला चेहरा बताने वाली घटना है. यह हर लिहाज से एक उत्पीड़ित की लाचारी का प्रतीक है. यह घटना इस बात का प्रतीक है कि इस कुकर्मी शुक्ला को लगता है, बल्कि लगने लगा है कि स्वतंत्रता, समता, लोकतंत्र, संविधान सब उसके मूत्र की धार पर हैं ! यह बात जाति से ब्राह्मण नागरिकों के खिलाफ नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति के खिलाफ है, जो अपनी जाति या धर्म से परे कथित ब्राह्मणवादी अहंकार में चूर है. उत्पीड़न का यह भयावह चेहरा है.

क्या आज के भारत का असली चेहरा यही हो गया है ? प्रधानमंत्री अमेरिका में जिस लोकतांत्रिक भारत की दुहाई दे रहे थे क्या उसकी हकीकत यही है ? दुर्भाग्य से जवाब है – हां ! दुर्भाग्य से आज इस देश की गलियों, मोहल्लों और घरों में…हमारे दिमागों में ऐसा शुक्ला–कर्म जहर की तरह घुस गया है. अपने–अपने वाट्सएप ग्रुप्स को देखिए. हर रोज इस चरित्र का कोई व्यक्ति आपको वहां नजर आएगा. कभी वो किसी मुसलमान के खिलाफ, कभी ईसाई या कभी वो किसी दलित या आदिवासी के खिलाफ यही कर्म करता हुआ दिखेगा.

क्या समाज अचानक इतना कूपमण्डूक और प्रतिगामी हो गया है ? नहीं! ऐसा तो सदियों से चला आ रहा है, लेकिन इन्हीं सब के खिलाफ तो हम लड़ भी रहे थे. जब पाकिस्तान धर्म के आधार पर अपना रास्ता तय कर रहा था तब हमने एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश की राह पकड़ी थी. आजादी की लड़ाई के यही तो मूल्य थे जिन्हें हमने अंगीकृत किया और सहजने के लिए ही एक संविधान का निर्माण किया, लेकिन अब यह सब खतरे में है.

आजादी के मूल्य, अप्रतिम संघर्ष की विरासत, लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरपेक्षता, समता सब खतरे में है. हम धीरे धीरे अपने पैरों में सामंती बेड़ियां बंधते देख रहे हैं और मौन हैं. सोशल मीडिया पर रील्स देखने में व्यस्त, हम, एक मॉब लिंचिंग पसंद समाज में तब्दील होते जा रहे हैं. यह सब कुछ बहुत व्यवस्थित तरीके से हो रहा है. ऐसा वो कर रहे हैं जिन्हें एक आधुनिक तरक्की पसंद समाज नहीं चाहिए. वो जो विदेश में जाकर हिंदुस्तान में हर हफ्ते एक नया विश्विद्यालय खुलने का दावा करते हैं और देश में विश्विद्यालयों को तबाह करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं.

हमारी आपकी चेतना को, संवेदनाओं को अब जे जे श्रीराम का उद्घोष नियंत्रित करने लगा है. बच्चों के पाठ्यक्रम बदले जा रहे हैं हमें फर्क नहीं पड़ रहा है. इतिहास बदला जा रहा है, हम प्रफ्फुलित हैं कि कांग्रेसियों, वामपंथियों या मुसलमानों का लिखा इतिहास बदला जा रहा है. हमारा पूरा चिंतन सिमट गया है किसी सड़क के नए नामकरण में. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महंगाई से लेकर अर्थनीति, विदेश नीति सबकी जगह हमारे चिंतन में बस हिंदू मुसलमान, धर्म, धर्मांतरण जैसे मुद्दे घुस गए हैं. जिस सार्वजनिक क्षेत्र की इस देश के विकास में, लोक कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका थी, आज वो व्यवस्थित तरीके से तबाह किया जा रहा है, लेकिन अभी एजेंडा तो कथित लव जिहाद है.

हम धीरे धीरे अपनी आजादी गंवाते जा रहे हैं और देख नहीं पा रहे हैं कि दरवाजे पर तानाशाही खड़ी हुई है. तानाशाही के खतरे का मुकाबला केवल एक चुनाव की हार जीत से नहीं हो सकता. जब एक सामंती शुक्ला एक गरीब आदिवासी के सिर पर अपने अहंकार का मूत्र विसर्जित करता है और हम चुप रहते हैं तब भी तानाशाही एक कदम और हमारे करीब आ रही होती है. यह भयावह हमला है. अपनी संवेदनाओं को, विवेक को, लोकतांत्रिक समझ को झकझोरने का समय है. इससे पहले कि जेल से बाहर आने के बाद इस शुक्ला का सार्वजनिक अभिनंदन हो जाए, खुद को झकझोर डालिए. झकझोरिए नहीं तो किसी प्रवेश शुक्ला का ऐसा मूत भारत भाग्य विधाता न बन जाए.

( लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं)