प्राचीन काल से अब तक ऐसे कई महान विभूति हुए जिन्होंने दुनिया को सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाया। जिन के सिद्धांतों से ना केवल लोग तन से बल्कि मन से भी रोग मुक्त हो गए। लोग ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव समाज भी भयमुक्त होकर जीवन की वास्तविक लक्ष्य को प्राप्ति के लिए आनंद पथ पर जाने के लिए संकल्पित हो गया। ऐसे महान विभूतियों में से एक भगवान महावीर स्वामी हैं जिनके धान वर्तमान परिदृश्य में आज भी प्रासंगिक है भगवान महावीर स्वामी का जन्म 599 ईसा पूर्व कुंडलग्राम, वैशाली नगर में इच्छा को वंश के क्षत्रिय कुल में हुआ था। महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ एवं माता त्रिशाला थी। उनकी जयंती को महावीर जयंती और दीपावली के दिन मनाया जाता है। उन्होंने 30 वर्ष के ही उम्र में राजकीय वैभव को त्यागकर आत्मकल्याण के लिए वन की ओर प्रस्थान कर गए। 12 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने इसे समवशरण में प्रसारित किया। भगवान महावीर की मृत्यु 72 वर्ष के आयु में 527 ईसा पूर्व में पावापुरी नालंदा बिहार में हुई।
जीयो और जीने दो
जिस समय भगवान महावीर का जन्म उस समय समाज में हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव गया गया। तब उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया और अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। दुनिया को उनके बताए जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत सत्य अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धान्त दिए। महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म संसार के प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं, इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें, जो हमें स्वयं को पसन्द हो। यही महावीर का ‘जीयो और जीने दो’ का सिद्धान्त है। सभी जैन मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को इन पंचशील गुणों का पालन करना अनिवार्य है। महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों और प्रवचनों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाई और मार्गदर्शन किया। यद्यपि उनकी धर्मयात्राओं का ठीक वर्णन कहीं नहीं मिलता तो भी उपलब्ध वर्णनों से यही विदित होता है। कि उनका प्रभाव विशेष रूप से क्षत्रियों और व्यवसायी वर्ग पर पड़ा, जिनमें शूद्र भी बहुत बड़ी संख्या में सम्मिलित थे।
महावीर अहिंसा के दृढ़ उपासक थे, इसलिए किसी भी दिशा में विरोधी को क्षति पहुंचाने की वे कल्पना भी नहीं करते थे। वे किसी के प्रति कठोर वचन भी नहीं बोलते थे और जो उनका विरोध करता, उसको भी नम्रता और मधुरता से ही समझाते थे। इससे परिचय हो जाने के बाद लोग उनकी महत्ता समझ जाते थे और उनके आंतरिक सद्भावना के प्रभाव से उनके भक्त बन जाते थे।
राजाओं ने किया प्रचार
क्षत्रिय व राजवंश से होने के कारण महावीर का क्षत्रिय राजाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा इतिहासकार एवं जैन ग्रंथों की माने राजगिरी का राजा बिंबिसार भगवान महावीर का अनुयाई वहां पर इनका नाम श्रेणिक बताया गया है और महावीर स्वामी के अधिकांश उपदेश श्रेणिक के प्रश्नों के उत्तर के रूप में ही प्रकट किये गये हैं। आगे चलकर इतिहास प्रसिद्ध महाराज चंद्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म के अनुयायी हुये। उन्होंने दक्षिण भारत में आकर जैन मुनियों का तपस्वी जीवन व्यतीत किया था। उड़ीसा का राजा खाखेल तथा दक्षिण के कई राजा जैन थे। इसके फलस्वरूप जनता में महावीर स्वामी के सिद्धांतों का अच्छा प्रचार हो गया और उनके द्वारा प्रचारित धर्म कुछ शताब्दियों के लिए भारत का एक प्रमुख धर्म बन गया। आगे चलकर अनेक जैनाचार्यों ने जैन और हिंदू धर्म के समन्वय की भावना को भी बल दिया, जिसके फल से सिद्धांत रूप से अंतर रहने पर भी व्यवहार रूप में इन दोनों धर्मों में बहुत कुछ एकता हो गई और जैन एक संप्रदाय के रूप में ही हिंदुओं में मिल जुल गये।
अहिंसा ही सबसे धर्म
महावीर स्वामी का सबसे बड़ा सिद्धांत अहिंसा का है, जिनके समस्त दर्शन, चरित्र, आचार−विचार का आधार एक इसी अहिंसा सिद्धांत पर है। वैसे उन्होंने अपने अनुयायी प्रत्येक साधु और गृहस्थ के लिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के पांच व्रतों का पालन करना आवश्यक बताया है, पर इन सबमें अहिंसा की भावना सम्मिलित है। इसलिए जैन विद्वानों का प्रमुख उपदेश यही होता है− अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म (अहिंसा परमो धर्म), अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा ही परम ब्रह्म है। अहिंसा ही सुख शांति देने वाली है। अहिंसा ही संसार का उद्धार करने वाली है। यही मानव का सच्चा धर्म है। यही मानव का सच्चा कर्म है। अहिंसा जैनाचार का तो प्राण ही है। जैनियों के आचार−विचार, अहिंसा के विषय में चाहे जैसे रूढिवादी बन गये हों, पर इसमें संदेह नहीं कि महावीर स्वामी ने अपने समय में जिस अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार किया, वह निर्बलता और कायरता उत्पन्न करने के बजाय राष्ट्र का निर्माण और संगठन करके उसे सब प्रकार से सशक्त और विकसित बनाने वाली थी। उसका उद्देश्य मनुष्य मात्र के बीच शांति और प्रेम का व्यवहार स्थापित करना था, जिसके बिना समाज कल्याण और प्रगति की कोई आशा नहीं रखी जा सकती। यद्यपि अहिंसा का प्रतिपादन सभी धर्मोपदेशकों ने अपने−अपने ढंग से किया है, पर जिस प्रकार महावीर और बुद्ध ने अहिंसा पर सबसे अधिक बल देकर उसी को अपने धर्म का मूलमंत्र बनाया, ऐसा किसी अन्य धर्म संस्था ने नहीं किया।
छत्तीसगढ़ में जैन धर्म
छत्तीसगढ़ में यदि जैन धर्म का आगमन देखें तो लगभग ढाई हजार वर्ष पुरानी है। राजिम में पुरातत्व खुदाई में भगवान पाश्र्वनाथ की 1600 साल पुरानी प्रतिमा मिली है। रामायण महाभारत काल से ही छत्तीसगढ़ के जंगल ऋषि-मुनियों की तपस्या के लिए उपयुक्त मानी जाती रही है। ऋंगी-ऋषि, वाल्मिकी आश्रम से लेकर कई ऋषि महात्माओं के प्रमाण यहां के जंगलों में मिले हैं। इसके अलावा शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन धर्म विभिन्न पंथ व धर्मों से जुड़े प्रमाण छत्तीसगढ़ की माटी से प्राप्त हुई।
राजिम के अतिरिक्त सिरपुर, मल्हार, डोंगरगढ़, गुंजी, खरौद, पाली, महेशपुर, रतनपुर, शिवरीनारायण, दुर्ग, नगपुरा, भोरमदेव, सहित कई स्थान है, जहां से भगवान आदिनाथ से लेकर प्रभु, पाश्र्वनाथ, प्रभु महावीर स्वामी, प्रभु अजितनाथ, प्रभु नेमीनाथ, प्रभु श्रेयांशनाथ, श्री चंद्र प्रभु की मूर्ति व प्रमाण मिले है। सिरपुर में मिली प्रथम तीर्थकर प्रभु ऋषभदेव की कलात्मक कांस्य प्रतिमा महेशपुर की तीन फीट ऊंची दुर्लभ प्रतिमा, मल्हार के बूढीखार और डीपाडीह सहित रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन नाट्य शाला में भी जैन धर्म का उल्लेख है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन प्रतिमाओं के प्रति स्थानीय लोगों की श्रद्धा प्राचीन समय से है। बकेला-देवसरा से प्राप्त प्रतिमा बारहवीं शताब्दी की है जो पंडरिया के जैन मंदिर में स्थापित है। आदिवासी बैगा जन जाति में आज भी दीक्षा की रस्म इस प्रतिमा के सम्मुख होती है। मल्हार के बूढ़ीखार में प्रतिस्थापति प्रतिमा को गांव वाले परगनिहा देवता के रूप में पूजते है। मल्हार में ही केंवट जनजाति के बीच निर्मित जैन मंदिर में पूजा अर्चना स्थानीय लोग ही करते है। इसी तरह नगपुरा के प्राचीन मंदिर में गांव वालों की श्रद्धा अनुपम है। दुर्ग में भंगड़देव की पूजा श्री हनुमान की तरह की जाती है। सरगुजा के डीपाडीह की प्रतिमाएं दूसरी और तीसरी शताब्दी की है। सक्ती के पास गुंजी में ऋषभ तीर्थ का उल्लेख जैन संप्रदाय की पुण्य स्थली का परिचायक है। आरंग के भांड देवल मंदिर में ग्यारहवीं शताब्दी की प्रभु अजितनाथ, नेमीनाथ और श्रेयांशनाथ की संयुक्त प्रतिमा है। इन सभी तथ्यों प्रमाणों पर गौर करें तो छत्तीसगढ़ में जैन परंपरा सदियों पुरातन है।
संयमित दिनचर्या से जीवन में आनंद
छत्तीसगढ़ समेत संपूर्ण देश वर्तमान में वैश्विक महामारी कोविड-19 का दुष्प्रभाव है और यह महामारी चरम सीमा पर है। हर कोई अपने प्रियजनों की मंगल कामना हेतु अपने इष्ट और आराध्य देव के समक्ष नतमस्तक है। स्वास्थ्य के जानकार इस असाध्य रोग से लड़ने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बातों में ह्यूमैनिटी पॉवर बढ़ाने पर ही बल दे रहे हैं। घनघोर निराशा में आशंकित रोग और मृत्यु के भय से इस तरह डरे हुए हैं कि लोग किसी भी धर्मगुरु, मोटिवेशन गुरु, योग गुरु आयुर्वेदाचार्य आदि के प्रवचन को बड़े ही ध्यान से सुन रहे हैं। उनका सकारात्मक संदेश वर्तमान में लोगों का मनोबल बढ़ा रहा है। हालांकि सबका संदेश संयमित दिनचर्या और शुद्ध खानपान पर ही है। जिसका आधार स्तंभ सत्य और अहिंसा है। ऐसे में भगवान महावीर के बताएं सिद्धांत विज्ञान के अनुसार स्वास्थ्यगत दृष्टि से अति उत्तम है। भगवान महावीर के धर्म अनुरागी उनके सिद्धांत के अनुरूप संयमित दिनचर्या, जिसमें सूर्योदय से पहले उठना, एक घंटा के सामायिक करना (धर्म ग्रंथों को पढ़ना या ध्यान करना), समय पर सूर्यास्त से पहले निश्चित भोजन करना, सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव हमारे सांसो से ना मरे, इसलिए मुँहहपत्ति (मास्क) बांधना तथा गरम पानी का उपयोग करना, जैसे सिद्धांत को बखूबी पालन कर रहा है। वर्तमान परिदृश्य में संपूर्ण विश्व कोरोना महामारी के दुष्प्रभाव से जूझ रहा है और स्वास्थ्य ही प्रथम प्राथमिकता हो गई है। ऐसे में भगवान महावीर का सिद्धांत अपनाकर इस संकटकाल में व्यक्ति अपने जीवन को आनंदमय बना सकता।
लेखक- पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी शोध पीठ के अध्यक्ष एन.डी. मानिकपुरी
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