आलेख- छत्तीसगढ़ शासन, पूर्व लोकसभा सांसद एवं केबिनेट मंत्री चन्द्रशेखर साहू
रायपुर। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने “तिब्बती नीति एवं समर्थन अधिनियम 2020” (Tibetan Policy and Support Act of 2020) पर हस्ताक्षर किए। जिससे अमेरिका की तिब्बत नीति को अंतिम स्वरूप मिला और निर्वासित तिब्बती सरकार के समर्थन के लिए अमेरिका की प्रतिबद्धता दोहराई। अमरीकी सरकार का यह कदम एशियाई राजनीति के परिपेक्ष्य में इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि दलाई लामा का पुनर्जन्म एवं पहचान (नए दलाई लामा की नियुक्ति) के समस्त अधिकार वर्तमान दलाई लामा, तिब्बती बौद्ध नेताओं और तिब्बती लोगों को सौंपता हैं। उस मोर्चे पर चीन का कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता है। जबकि चीन की सरकार चाहतीं थी कि नए दलाई लामा की नियुक्ति वह करे। चीन ने साम्राज्यवादी नीति के तहत तिब्बत राष्ट्र पर सैन्य बल का प्रयोग कर अपना कब्जा जमा लिया था। अब चीनी सरकार की हा में हा मिलाने वाले नए दलाई लामा की नियुक्ति कर तिब्बत के लोगो की आवाज को चीन दबाना चाहता है। अगर इस अधिनियम के बाद भी चीन बल पूर्वक नए दलाई लामा की नियुक्ति करता है तो अमरीका चीन पर आर्थिक प्रतिबंध लगा सकता है।
चीन के मंसूबो पर कुठाराघात करते हुए यह अधिनियम औपचारिक रूप से सीटीए को तिब्बती लोगों के वैध प्रतिनिधि और डॉ. लोबसांग संगे को केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) के अध्यक्ष के रूप में मान्यता देता है। इस अधिनियम के अनुसार तिब्बत के लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए अमरीकी प्रशासन एक अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन बना सकता है। तिब्बत की राजधानी ल्हासा में अमरीकी प्रशासन एक वाणिज्य दूतावास (काउंसलेट) खोलना चाहता है। जब तकअमरीका को ल्हासा में वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति नहीं मिलती तब तक अमरीका भी चीन को अमरीका में नए दूतावास खोलने की अनुमति नहीं देगा। धन उपलब्ध कराने के अलावा “तिब्बती नीति एवं समर्थन अधिनियम 2020” में तिब्बत के पर्यावरण के लिए सुरक्षा प्रावधान भी हैं, जो चीनी सरकार के कार्यों के कारण संकट में खड़ा है।
अधिनियम का उद्देश्य तिब्बती पठार पर पर्यावरण और जल संसाधनों की रक्षा करना है. जिसमें ब्रह्मपुत्र नदी शामिल है। इसके अलावा, यह तिब्बती पठार पर पर्यावरण की निगरानी के लिए अधिक से अधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का आह्वान करता है। अक्टूबर 1950 में ही चीन ने सैन्य बल के प्रयोग से तिब्बत पर कब्जा कर लिया था। विश्व के बाकी देशों ने अगर सही समय पर चीन की विस्तारवादी नीति जिसे वह वन चाइना पालिसी कहता है कि खिलाफत की होती तो विश्व के नक्शे पर आज तिब्बत एक राष्ट्र के रूप में गायब नहीं हुआ होता। दक्षिण एशियाई देशों ने चीन की आक्रामक नीति का कभी कड़ा जवाब नहीं दिया, इसी प्रकार भारत के पूर्ववर्त्ती सरकारों का रुख तिब्बत राष्ट्र की आजादी को लेकर बहुत ही निष्क्रिय रहा है। तिब्बत पर चीन के कब्जे की वजह से भारत के 5 राज्य सीधे चीन की नई सीमा से सम्पर्क में आ गए। 1949 तक चीन का केवल एक छोटा क्षेत्र ही भारत चीन की सीमा हुआ करता था। हद तो तब हो गई जब भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने 1954 में अधिकृत रूप से मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है और चीन के साथ “पंचशील” समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए।
1958 में चीन ने अपना जो नक़्शा जारी किया. उसमें भारत के “अक्साई चीन” में जहां-जहां उसने सड़कें बनवाई थीं, उस हिस्से को अपना बता दिया। 1959 में भारत ने दलाई लामा को अपने यहां शरण दी तो माओत्से तुंग ग़ुस्से से तमतमा उठा और उसने भारत की हरकतों पर कड़ी निगरानी रखने का हुक्म दे दिया। 1960 में चीनी प्रीमियर चाऊ एन लाई जब भारत आए तो नेहरू ने शायद तिब्बत के मुद्दे को उस प्रखरता से नही उठाया जिसकी आवश्यकता थी।
एक प्रकार से हम कह सकते है कि माओत्से तुंग अपने राष्ट्र के हितों के सम्बंध में नेहरू की अपेक्षा अधिक गम्भीर एवं दूरदर्शी थे जिसका फायदा चीन को और नुकसान भारत को हुआ। भारत-चीन के बीच जो “मैकमोहन” रेखा थी, उसे अंग्रेज़ इसलिए खींच गए थे ताकि असम के बाग़ानों को चीन ना हड़प ले। 1962 में मैक्मोहन रेखा पर सीमा विवाद ने जन्म ले लिया और भारत चीन के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया, इस युद्ध मे भारत को जान माल की बहुत हानि उठानी पड़ी। अगर तिब्बत अस्तित्व में होता और भारत ने तिब्बत के अस्तित्व की रक्षा में सहयोग किया होता तो शायद 1962 के युद्ध का विजेता भारत होता।
वर्ष 1962 से लेकर 2020 तक विश्व में कई बड़े परिवर्तन आए है। ये विश्व बिरादरी में चीन को अलग करता है, भारत अमिरिकी सम्बन्ध भी ने शीर्ष पर है। दरअसल महाशक्ति के रूप में चीन की बढ़ती ताकत और रूस के साथ चीन के बढ़ते व्यापारिक रिश्ते अमरीकी सरकार की चिंता का विषय है। इसलिए भारत को अमरीका दक्षिण एशिया में एक विश्वसनीय सहभागी के रुप में देखना चाहता है। इस परिस्थिति का लाभ स्वाभाविक रूप से तिब्बत और भारत के पक्ष में जाता है।
अमरिकी सरकार ने तिब्बत राष्ट्र के संरक्षण में अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए अक्टूबर महीने में तिब्बत समन्वयक “वरिष्ठ मानवाधिकार अधिकारी” के रूप में नियुक्त किया था। अमरीकी प्रशासन ने कहा था कि यह अधिकारी “दलाई लामा और चीन के बीच एक संवाद को बढ़ावा देंगे। दिसम्बर महीने में दक्षिण एशिया में तिब्बत राष्ट्र की आजादी के सबसे बड़े गैरसरकारी सन्गठन भारत तिब्बत सहयोग मंच ने भारत के गुवाहाटी शहर में अपनी राष्ट्रीय परिषद की बैठके 2 दिनों तक की थी। इन बैठकों का उद्देश्य भी विश्व स्तर पर तिब्बत की आजादी के पक्ष में अनुकूल राजनैतिक वातावरण का निर्माण करना था। भारत तिब्बत सहयोग मंच ने “अमरीकी”तिब्बती नीति एवं समर्थन अधिनियम 2020” को तिब्बत के अस्तित्व के हित में अमरीकी योगदान कहकर इसकी प्रशंसा की है।
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) की ओर से अमरीका के इस प्रावधान पर प्रतिक्रिया देते हुए सीटीए के अध्यक्ष डॉ. लोबसांग सांगे ने कहा, “यह कानून तिब्बत के अंदर तिब्बतियों को आशा और न्याय का एक शक्तिशाली संदेश भेजता है और तिब्बती लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता, मानव अधिकारों, पर्यावरण अधिकारों और निर्वासित तिब्बती लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए अमेरिका का समर्थन करता है। यह अभूतपूर्व है।
सीटीए और 6 मिलियन तिब्बतियों की ओर से, मैं राष्ट्रपति ट्रम्प के लिए गहन ऐतिहासिक बिल पर हस्ताक्षर करने के लिए गहरा आभार व्यक्त करता हूं। मैं बिल पारित करने के लिए अमेरिकी कांग्रेस को एक बार फिर धन्यवाद देना चाहूंगा, विशेषकर बिल के प्रायोजक मर्सेनी रूबियो और बेन कार्डिन। कांग्रेस मैन जिम मैकगवर्न और क्रिस स्मिथ को सदन और सीनेट में पेश करने के लिए। हर किसी के लिए धन्यवाद जिन्होंने इसे एक वास्तविकता बनाने में योगदान दिया।” तिब्बत के मामले में भारत की नीति भी बेहतर करने की आवश्यकता है। साल 1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया लेकिन 1954 में नेहरू तिब्बत को एक समझौते के तहत चीन का हिस्सा मान बैठे। तब से आज तक तिब्बत के सम्बंध में कोई नया फार्मूला नही बना पाया है।
2017 में चीन ने भारत पर यह आरोप लगाया है कि उसके घरेलू मामलों में दखल देकर भारत 1950 के दशक में चीन, भारत और बर्मा के बीच हुए पंचशील समझौते का उल्लंघन कर रहा है।
चीन का कहना है कि भारत-चीन सरहद के सिक्किम और तिब्बत वाले हिस्से में सीमाओं का निर्धारण ब्रिटिश काल (1890) में ही हो चुका है। चीन का दावा है कि इस सिलसिले में सबूत के तौर पर उसके पास चीन के प्रीमियर जाउ इनलै को लिखी जवाहरलाल नेहरू की चिट्ठी भी है। इसके अलावा चीन का कहना है कि 12 फरवरी, 1960 को बीजिंग के भारतीय दूतावास ने उसके विदेश मंत्रालय को एक नोट में लिखा था, “भारत सरकार सिक्किम, भूटान और तिब्बत सीमा को लेकर चीन की तरफ से भेजे गए नोट में दिए गए स्पष्टीकरण का स्वागत करती है. इस नोट में कहा गया है कि सिक्किम और चीन के तिब्बत के बीच सीमा का निर्धारण औपचारिक तौर पर काफी पहले तय हो गया है. नक्शे पर न तो किसी तरह की कोई खामी है और नही कोई विवाद मौजूद है. भारत सरकार ये भी कहना चाहती है कि ज़मीन पर भी सीमाओं का निर्धारण हो गया है।”
भारतीय पक्ष एवं मीडिया द्वारा जुलाई 2017 में चीन के विदेश मंत्रालय के सामने नेहरू की उसी चिट्ठी का हवाला देकर ये सवाल भी रखा गया गया कि चीन के नक्शे में भूटान का एक बड़ा हिस्सा तिब्बत का दिखाया गया है और इस मसले पर भारत और चीन के बीच वार्ता की बात भी कही गई है। जिसका जवाब चीन के प्रवक्ता ने ये कहकर टाल दिया कि उन्हें इस चिट्ठी के बताए गए पहलू के बारे में जानकारी नहीं है। पठारी क्षेत्र डोकलाम में भी चीन के सड़क बनाने की कोशिश से भारत-चीन विवाद की शुरुआत हुई। भारत में डोकलाम के नाम से जाने जाने वाले इस इलाके को चीन में डोंगलोंग नाम से जाना जाता है। ये इलाका वहां है जहां चीन और भारत के उत्तर-पूर्व में मौजूद सिक्किम और भूटान की सीमाएं मिलती हैं। भूटान और चीन दोनों इस इलाके पर अपना दावा करते हैं और भारत भूटान के दावे का समर्थन करता है। चीन का कहना है कि 1890 के समझौते में भारत-चीन सीमा के सिक्किम वाले हिस्से का जिक्र है। इसके मुताबिक भारत-चीन सीमा का सिक्किम वाला हिस्सा पूरब में माउंट गिपमोची से शुरू होता है।
1950 में जन्मी तिब्बत समस्या विश्व समुदाय कड़ा रुख अपना कर हल कर सकता था। अमेरिका, ब्रिटेन के साथ संयुक्त रूप से तिब्बत को स्वतंत्र देश स्वीकार कर सैन्य सहायता दी जा सकती थी। कोरियन युद्ध में व्यस्त चीन के लिए दो मोर्चे सम्भालना तकरीबन असम्भव था, उस समय चीन आज की तरह बड़ी आर्थिक शक्ति भी नहीं बना था। तिब्बत के लिए भी कोरिया की तरह शांति सेनाएं भेजी जा सकती थीं, लेकिन भारत की निष्क्रियता ने एक राष्ट्र के अस्तित्व तथा भारत की सीमाओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। चीन भारत सीमा पर चीन सेनाएं, मिसाइलें, रॉकेट, टैंक बढ़ा रहा है। चीनी उकसावे पर भारतीय प्रतिक्रिया युद्ध में बदल सकती है। ऐसे समय मे अमरीका का यह “तिब्बती नीति एवं समर्थन अधिनियम 2020” दक्षिण एशिया का नक्शा एक बार फिर बदल सकता है। अस्थिरता की आशंका के बाद भी संतोष की बात यह है कि भारत अब पहले वाला भारत नहीं है और चीन की वन चाइना की विस्तारवादी नीति के कारण विश्व समुदाय में अलग थलग होना तिब्बत तथा भारत के लिए शुभ संकेत है।