रायपुर. शहीद भगत सिंह ने अपनी काल कोठरी जो उनका अध्यययन कक्ष था ,गंभीर अध्ययन करते अपनी आत्मकथा सहित 4 महत्वपूर्ण किताबें लिखी थीं ? क्या हुआ उन पुस्तकों का ?
ये सवाल भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र सिंधु जो भगतसिंह के छोटे भाई कुलतारसिंह की बेटी हैं , उन्होंने 28 दिसंबर 1968 को अपनी पुस्तक ‘युग द्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे ‘ में उठाया। वीरेंद्र सिंधु ने लिखा है ” उन्होंने फाँसी कोठरी में बैठे -बैठे वक्तव्य तो जाने कितने लिखे थे ,पर कई पुस्तकें भी लिखी थीं ,इनमें महत्वपूर्ण पुस्तकें थीं
1 –आइडियल ऑफ़ सोशलिज्म
2 –द डोर टू डेथ
3 -ऑटोबायोग्राफी
4 -द रिवोल्यूशनरी मूवमेंट ऑफ़ इंडिया विथ शार्ट बायोग्राफ़िक स्केचेस ऑफ़ थे रिवोल्यूशनरीज़
इन पुस्तकों में भगतसिंह ने नयी समाज व्यवस्था को रेखांकित कर विकल्प के रूप में और समाधान के तौर पर समाजवाद को प्रस्तुत किया था। ‘आइडियल ऑफ़ सोशलिज्म ‘ को भगतसिंह तुरंत छपवाना चाहते थे ,उनका कहना था इस पुस्तक की ‘पोलिटिकल वैल्यू ‘ बहुत अधिक है.
क्या हुआ उन पुस्तकों का ? इसका जवाब देते हुए वीरेंद्र सिंधु ने लिखा है -” भगत सिंह का आदेश था सारी सामग्री लज्जावती जी को दे दी जाएँ। इसके बाद कुलबीर सिंह द्वारा सामान उन तक पहुँच गया। ‘इसके बाद की कहानी भी कुलबीर सिंह के शब्दों में -‘ 1933 -34 में मैंने इस साहित्य की बात चाचाजी सरदार अजीतसिंह को लिखी ,जो उस समय जर्मनी में थे। उन्होंने उत्तर दिया उस सब साहित्यकी नक़ल करवाकर मुझे भेज दो। मैं उन्हें यहाँ अंग्रेजी , जर्मनी और अन्य भाषाओं में छपा दूँगा. मैं लज्जावती जी के पास गया। उन्होंने कहा ,वह देश की संपत्ति है ,इसलिए मैंने पंडित जवाहरलाल नेहरू को दे दी थी। कुछ दिनों के बाद पंडित नेहरू लाहौर आये , तो मैंने उनसे उस साहित्य की नक़ल दे देने को कहा। वे बोले तुमसे किसने कहा कि मेरे पास वो साहित्य है ? मैंने लज्जावतीजी का नाम लिया। वो चुप हो गए फिर कुछ बोले.
इसके बाद मैंने लज्जावतीजी से फिर पूछा ,तो वे बोलीं ‘मैंने पुस्तकें विजय कुमार सिन्हा को दे दी हैं। मिलने पर श्री विजय कुमार सिन्हा ने स्वीकार किया और 1946 तक कहते रहे कि उन्हें देखभाल कर जल्दी ही छपवाएंगे ,पर बाद में उन्होंने कहा कि वे पुस्तकें सुरक्षा के ख्याल से किसी मित्र के पास रखी थीं ,वहीँ नष्ट हो गयी। ” तो एक बात तो ये कि ये दस्तावेज़ नेहरूजी तक कभी पहुंचे ही नहीं …
वीरेंद्र सिंधुजी के लिखे विवरण से ज़ाहिर है –
1 -भगत सिंह के कहने पर पुस्तकें लज्जावती को दी गयीं।
2 -ये पुस्तकें नेहरूजी तक बिलकुल नहीं पहुंची।
3 -लज्जावतीजी ने जब दोबारा भगतसिंह के साथ विजय कुमार सिन्हा का नाम लिया और सिन्हा जी ने स्वीकार किया
पुस्तकें उन तक पहुंची।
4 -विजय कुमार सिन्हा ने छपवाने का वादा किया पर अचानक कुलबीर सिंह को जवाब दिया कि -‘नष्ट हो गयीं !
वीरेंद्र सिंधु ने बहुत पीड़ा के साथ आगे लिखा है कि बहुत दर्दनाक है ये संस्मरण ,यह इतिहास की धरोहर के छिन जाने की कहानी है। इतिहास इसके लिए किसे दोष देगा मैं नहीं जानती.
भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी शिव वर्मा ने ‘शहीद ‘भगतसिंह की चुनी हुई कृतियों ‘ के आमुख में लिखा है -: दुर्भाग्यवश जेल में भगतसिंह द्वारा लिखी गयी चार पुस्तकों [उपरोक्त ] की पांडुलिपियाँ नष्ट हो चुकी हैं। ये चारो पांडुलिपियाँ चोरी -छिपे जेल से बाहर लायी गयीं और कुमारी लज्जावती के पास जालंधर भेज दी गयी थीं ,जिन्होंने 1938 में इनको विजयकुमार सिन्हा के हवाले कर दिया। 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने के बाद सिन्हा को लगा ,और ठीक ही लगा ,कि उनकी गिरफ्तारी और उनके घर की तलाशी हो सकती है। इसलिए पांडुलिपियों को पुलिस के हाथों पड़ने से बचाने के लिए उन्होंने , उनको सुरक्षित रख -रखाव के उद्देश्य से अपने एक मित्र के हवाले कर दिया. लेकिन 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन ‘ के बाद जब पुलिस दमन जोरों पर था , यह दोस्त बेहद डर गया और उसने पांडुलिपियों को नष्ट कर दिया.
यानी भगत सिंह के सबसे नज़दीकी कामरेड शिव वर्मा जी चारों किताबों की पुष्टि करते हैं ,जिसके वे जेल में भी प्रत्यक्ष गवाह रहे।
शिव वर्मा ये भी कन्फर्म करते हैं कि चारों किताबें लज्जावती के हाथों विजय कुमार सिन्हा को मिली बस और आगे जो शिव वर्मा ने सुना किताबें नष्ट होना ,उस सुनी हुई बात को लिखा.
जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और ‘भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज’ के संपादक प्रोफेसर चमनलाल ने ‘उद्भावना’ द्वारा
प्रकाशित एक पुस्तिका में शिववर्मा को उद्धृत कर लिखा है. लज्जावती ने उन दस्तावेजों को ‘पीपुल ‘ के संपादक फिरोजचंद को दिए।
फिरोजचंद ने उसमे से कुछ कागज़ चुनकर बाकी लज्जावती को वापिस कर दिए , जिन्हे लज्जावती ने 1938 में विजय कुमार सिन्हा को दिया. उन दस्तावेजों में फिरोजचंद ने 27 सितम्बर 1931 के अंक में ‘मैं नास्तिक क्यों ‘ शीर्षक लेख प्रकाशित किया.
भगतसिंह के पिता भी उन दस्तावेजों को पाने ,देखने के लिएबहुत परेशान थे ,लेकिन भगतसिंह के निर्देशानुसार लज्जावती ने इसके लिए सख़्ती से इंकार कर दिया। इस पूरे परिदृश्य का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इन दस्तावेजों के प्रति उदासीनता का है ,जिसकी चर्चा अब महत्वपूर्ण है। कुमारी लज्जावती ने ही नहीं बल्कि फिरोजचंद ने भी यहाँ तक की विजय कुमार सिन्हा ने भी उन दस्तावेजों के प्रति उदासीनता बरती. ”
आगे प्रोफेसर चमनलाल इन पुस्तकों पर सवाल उठाते हैं कि जो शिव वर्मा ने देखा हो वह पूर्ण पाण्डुलिपि थी अथवा जेल डायरी
की तरह दर्ज़ टिप्पणियाँ ही थी , इस वषय में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता ……..सतही तौर पर देखें तो इतने अल्प समय [लगभग 2 बरस ,8 अप्रेल 1929 से 23 मार्च 1931 ] 4 पुस्तक लिखना कठिन है.
प्रोफेसर साहब क्या सचमुच भगत सिंह जैसे महान विचारक -क्रांतिकारी के लिए 2 बरस में सिर्फ़ 4 पुस्तकें लिखना असंभव है ?
भगत सिंह को पढ़ते हुए हमें लगता है कि 4 तो कुछ भी नहीं ? यही वजह है चमनलालजी के साथ कई विद्वानों की बहुत असहमतियाँ हैं।सुप्रीम कोर्ट के वकील और विख्यात लेखक अरविन्द जैन का भगतसिंह पर विस्तृत लेख ‘हँस’ अर्धशती विशेषांक (1997) में छपा ।
इस लेख में अरविन्द जैन जी ने इस मुद्दे को खास तौर पर रेखांकित किया। मैंने अरविन्द जैन जी से पूछा -: भगत सिंह की चारो पुस्तकें जो नष्ट हो गयी कुमारी लज्जावती ने विजय कुमार सिन्हा को सौपीं तो आखिर पुस्तकें गयीं कहाँ ? क्या आसानी से नष्ट हो गयीं ?
जैन साहब ने फेसबुक पर ही मेरे सवाल के जवाब में कहा -‘कुछ भी कहना कठिन है।’विजयकुमार सिन्हा ने अंत में जिन्हे ये पुस्तकें या अमूल्य धरोहर सौपीं क्या ये संभव है वो नष्ट कभी की जा सकती थीं ? संभव है कि ये किसी रूप में मौजूद हों ! वाकई कुछ नहीं कहा जा सकता. जो भी हो एक बार फिर इन पुस्तकों को ढूंढने के विषय में पूरे प्रयास होने चाहिए। टूटी छूटी कड़ियों को जोड़ कर पहल करनी चाहिए , यदि मिल गयीं तो हिन्दुस्तान की सबसे अमूल्य धरोहर होंगी.
[तस्वीर–‘पुस्तक ‘युग द्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे ‘–पेज नंबर -306 ]
आलेख – अपूर्व गर्ग