॥श्री हनुमान को हनुमान ही रहने दे ॥॥ तीन बचावत देश को सती, संत, और शूर, तीन डुबोवत देश को कपटी, कायर, क्रूर॥
उनके गुण, शौर्य, पराक्रम और पुरुषार्थ के अनुसार कोई उन्हें जाट कोई मुसलमान, कोई आदिवासी, दलित वनवासी के रुप में स्वीकार कर रहे है। यह निश्चित रुप से गर्व का संदर्भ है। श्री हनुमान जी का व्यापक उदार सर्व स्वीकार्य प्रभा मंडल है। यहां इन सब मिथक भ्रांतियों से हटकर एक सामयिक एवं प्रासंगिक भूमिका श्री हनुमान जी की प्रस्तुत करना चाहते है। जिसे मनीषी विद्वानों ने स्वीकार किया है।
आज से 4 दशक पूर्व कल्याण का एक हनुमान विशेषांक निकला था। उसमे एक पूज्य संत ने श्री हनुमान पर कुछ पंक्तियां लिखी थी। यह विचार उन्हीं पंक्तियों के भाव पर है। भाव कुछ इस प्रकार है। जब विकसित संक्रमित संस्कॄति के बौद्धिक संक्रमण का तमस कलयुग में छा जायेगा। वैचारिक द्वंद होंगे, जीवन दिशा दिग्भ्रमित हो जायेगी। मानवीय मूल्य जीवन सिद्धांत निरीह और बौने हो जायेंगे। दूषित चिंतन, समाज की संरचना और सुव्यवस्था झकझोरने लगेगा। तब श्री हनुमान जी की भूमिका प्रारंभ होती है। जो सुख धाम राम असनामा॥
अयोध्या से अर्थात सीमित वर्ग विशेष में अवरुद्ध सुख सुविधा के निर्मल निर्वाह प्रवाह को महलों से निकालकर किष्किंधा की पथरीली घाटियों में लाना होगा। वहां के भय के वातावरण निर्भय बनाना होगा। तब हम श्री हनुमान जी की भूमिका को उनके संकल्प को उनकी जाति को समझ पायेंगे। नहीं तो यह वैचारिक अरण्य रुदन के अतिरिक्त और कुछ नहीँ होगा हमें श्री हनुमान जी की आकृति नहीँ प्रकृति पर विचार करना चाहिए।हनुमान जी बिंब मात्र नही है। वे अपने आप में एक संकल्प है, एक आंदोलन है, एक अलख है, एक संस्कॄति को रक्षा के आवाहन का स्वर है। श्री हनुमान जी के चित्र को नहीँ उनके चरित्र को समझने की आवश्यकता है।
॥ तीन बचावत देश को सती, संत, और शूर, तीन डुबोवत देश को कपटी, कायर, क्रूर॥ जो सती के रुप में संस्कॄति स्वरूपा सीता की रक्षा कर दे, जो संत के रुप में अनुराग रस सार भरत की समय पर पहुंच कर सूचना देकर उनकी रक्षा कर दे और जो संस्कॄति और राष्ट्र के लिए समर्पित तरुणाई शूर लक्ष्मण की रक्षा कर दे वही इस देश का हनुमान है। ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमान जी की विभिन्न भूमिकाओं के आधार पर उनकी जाति, कुल, वंश, परंपरा पर विचार रखना उचित नहीँ है। संकीर्ण स्वार्थ के लिए, या बुद्धि के व्यायाम के लिए हनुमान जी पर विचार रखना ठीक नहीं है। इतने भौतिक संसाधनों के विपुल भंडारण संग्रह के बाद भी मानव मन अशांत है विभ्रांत है। महत्वकांक्षाओ के बारूद पर बैठकर हम अपने आपको श्रेष्ठ लब्ध और प्रतिष्ठित मान रहे है। जिस दिन हम समाज के लिए संस्कॄति और राष्ट्र तथा मानवीय मूल्यों के हित चिंतन के लिए अपने मान अहंकार को हनन कर देंगे। श्री हनुमान हमें अपनी जाति के लगने लगेंगे। मेरा आप से आग्रह है कृपया श्री हनुमान जी को हनुमान ही रहने दे।
उन्हे जाति वर्ग की सीमा में बांधना उचित नही एलबर्ट हाल लंदन में आयोजित भारतीय सिने जगत के कार्यक्रम का यह वाक्य प्रासंगिक लगता है। उसको कहकर विचार को विराम देंगे॥ जिस प्रकार उगते हुए सूरज की किरणों में कोई भेद भाव नहीं होता, चंद्रमा की रजत धवल चांदनी प्रकृति के यावत प्राणियों के लिए एक रस होती है धरती की सोंधी सुगंध तो सुगंध ही है। ठंडी हवाओं का कोई मकान, गांव वतन देश नही नहीं होता, बहना सबके लिए निर्बाध अविरल बहना उसका अनुष्ठान है, मासूम बच्चें की मुस्कुराहट का कोई मज़हब, धर्म, ईमान नहीं होता। वह तो परमात्मा की कृपा की तरह होता है। उसी तरह श्री हनुमान जी हमारी आस्था है। वे सबके है, सबके लिए है। अतः श्री हनुमान जी को हनुमान ही रहने दे तो अच्छा है।