आशुतोष तिवारी, जगदलपुर। विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व की महत्वपूर्ण रस्म मावली परघाव देर रात जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर प्रांगण में सम्पन्न हुई। दो देवियों के मिलन का यह अद्वितीय आयोजन हर साल की तरह इस वर्ष भी धूमधाम से संपन्न हुआ। हालांकि बारिश ने इस वर्ष कुछ खलल डाला, लेकिन उसके बावजूद यह रस्म भव्यता के साथ निभाई गई।


शक्तिपीठ दंतेवाड़ा से माता मावली की डोली और छत्र को परंपरा अनुसार जगदलपुर लाया गया, जहां बस्तर राजपरिवार के सदस्य और हजारों श्रद्धालुओं ने भव्य आतिशबाजी और पुष्पवर्षा से देवी का स्वागत किया।

नवरात्र की नवमी को होने वाली यह रस्म लगभग 600 वर्षों से निरंतर निभाई जा रही है। मान्यता है कि यह परंपरा बस्तर रियासत के महाराजा रूद्र प्रताप सिंह के समय से शुरू हुई थी। मावली देवी मूलतः कर्नाटक के मलवल्य गांव की देवी हैं, जिन्हें छिंदक नागवंशीय शासकों ने बस्तर लाकर प्रतिष्ठित किया। बाद में चालुक्य राजा अन्नम देव ने उन्हें कुलदेवी के रूप में मान्यता दी और तभी से मावली परघाव की रस्म प्रारंभ हुई।
इस दिन राजा, राजगुरु और पुजारी नंगे पांव राजमहल से मंदिर प्रांगण तक जाकर देवी की डोली का स्वागत करते हैं और दशहरे के समापन पर ससम्मान विदाई देते हैं।
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