संतोष गुप्ता, जशपुर- गरीबी और लाचारी, हो जब बेरोजगारी तब मजबूरियां बहुत कुछ कराती, बहुत कुछ छिन ले जाती है. सपने टूट जाते हैं, उम्मीदें धरी रह जाती है. चाहत-अरमान सब बिखर जाते हैं…जीते जी जैसे बस मर ही जाते हैं. कुछ यही हालात थी उन बेटियों की जो कुछ साल पहले तक मानव तस्करी की शिकार होती रहीं. जिनके सामने आर्थिक तंगी, गरीबी, रोजगार एक बड़ी चुनौती थी. जो आसानी से उन दलालों के झांसे में आ जाती थीं जो उन्हें नौकरी और रुपयों का लालच देकर शहरों में बेच दिया करते या फिर गलत कार्यों में झोंक दिया करते थे. लेकिन आज की तस्वीर कुछ साल पहले तक की ज़िंदगी से बिल्कुल अलग है. आखिर ये बदलाव आया कैसे इसकी पूरानी कहानी पढ़िए सिर्फ lalluram.com पर.
ये कहानी है छत्तीसगढ़ के उत्तरीय छोर में झारखंड राज्य की सीमा से लगे जशपुर इलाके की. जशपुर जो कि आदिवासी बाहुल्य इलाका है और इस इलाके की पहचान सालों तक मानव तस्करी वाले क्षेत्र के रूप में होती रही है. लेकिन यह सब अब बीते दिनों की बात हुईं. अब जशपुर इलाके की पहचान देश में मानव तस्करी के रूप में बल्कि बेटी ज़िंदाबाद बेकरी के रूप में हो रही है. और ये पहचान उन बेटियों की बदौलत हो सकी है जो मानव तस्करी की कभी शिकार हो चुकी थीं. जशपुर इलाके की ये कहानी उन युवतियों को ही समर्पित है जिन्होंने सरकारी योजना का लाभ लेकर न सिर्फ अपनी ज़िंदगी बदली है, बल्कि उन्हें जशपुर के माथे पर लगे तस्करी के कलंक को भी मिटाने का काम किया है. सच कहे तो मानव तस्करी की शिकार बेटियां अब जशपुर के माथे की बिंदी है.
कहानी की शुुरुआत सुमित्रा, लक्ष्मी, रानी जैसी 20 लड़कियां ( सभी बदले हुए नाम) की जिंदगी के काले अध्याय से होती है, लेकिन उनकी जिंदगी की एक नई शुरुआत सुनहरे पन्नों पर खत्म होती है. जिसमें आज भी रोज नई ईबारत लिखीं जा रही है. और इस अध्याय का नाम है ‘बेटी जिंदाबाद बेकरी’. दरअसल बेटी जिंदाबाद बेकरी को संभालने का जिम्मा उन बेटियों के हाथों में है जिनकी जिंदगी कभी मानव तस्करी का शिकार होने से पूरी तरह बिखर चुकी थीं. एक वक्त था जब 15-22 साल की उम्र की कई युवतियों को तस्करी करके अपने घर अपने परिवार से दूर कर दिया गया और उन्हें बंधूआ मजदूरी या फिर अन्य गलत कार्यों जेैसे कई अमानवीय कामों में धकेल दिया गया.
हांलाकि बाद में स्वयं सेवी संस्था और प्रशासन की लगातार कोशिशों के बाद इनमें से ज्यादातर लड़कियों को इस दलदल से निकाल कर उनके घरों तक पहुंचाया गया. लेकिन इनका संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ था. तस्करों के चंगुल से छुटने के बाद सबसे बड़ा मसला था “पुनर्वास”. समाज की स्वीकीर्यता के साथ ही आत्मनिर्भरता. ये दो बड़े सवाल थे. इन दोनों ही सवालों का जवाब बना “बेटी जिंदाबाद बेकरी”. 15 अगस्त 2017 को इस बेकरी की शुरुआत पत्थलगांव विधानसभा क्षेत्र के कांसा बेल से हुई. शुरुआत में बेकरी बस स्टॉप के किनारे एक छोटी सी दुकान से की संचालित की जाती थी. धीरे-धीरे मेहनत और सरकारी मदद की बदौलत इस बेकरी का विस्तार होने लगा है.
महिला कार्यक्रम अधिकारी इग्निशिया टोप्पो बताती है कि बिना इच्छा शक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं था. युवतियों ने जिस साहस और जब्जे के साथ अपने आप को आर्थिक तौर पर सशक्त किया वह वाकई प्रेरणादायी है. इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार की अनगिनत योजनाएं युवाओं के लिए संचालित है लेकिन जरूरी है कि युवा अपनी मेहनत और लगन से कुछ रचानात्मक कर दिखाएं. जैसे कि मानव तस्करी की शिकार इन बेटियों ने कर दिखाया है. तभी तो आज जशपुर में बेटी ज़िंदाबाद है. जिन लड़कियों की शादी हो गई वह अभी भी बेकरी के कार्य से जुड़ी हुईं हैं. और वे सब गांव-गांव में बेकरी के कारोबार को विस्तार दे रही हैं. सच कहे तो बेटी ज़िंदाबाद बेकरी की कहानी को बताते और सुनाते हुए मैं स्वयं बेहद गौरव का अनुभव करती हूँ. इन्हें देख के लगता है कि युवा चाहे तो क्या नहीं कर सकते हैं. वे जहां चाहे जिस रूप में चाहे अपनी ज़िंदगी के साथ देश-दुनिया की तस्वीर बदल सकते हैं. जैसे की जशपुर की इन बेटियों ने बदल के दिखाया है.
फक्र हैं इन बेटियों पर : प्रियंका शुक्ला
बेटी जिंदाबाद बेकरी आज जशपुर की पहचान बन चुकी है, तो इस पहचान के पीछे यदि किसी की पहल कामयाब साबित हुई, तो वह है कलेक्टर प्रियंका शुक्ला. बेटी जिंदाबाद के जरिए महिला सशक्तिकरण को नया आयाम देने वाली प्रियंका शुक्ला का कहना है कि-
विभिन्न शासकीय योजनाओं के कन्वर्जेन्स से कैसे आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण सुनिश्चित किया जा सकता है. “बेटी ज़िंदाबाद” बेकरी इसका सशक्त उदाहरण है – मुझे महिला ज़िलाधीश होने के नाते जशपुर की इन बेटियों पर और भी गर्व है जिन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और परिश्रम से ना केवल अपनी जीवन धारा बदली बल्कि राष्ट्रपति से राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त किया.