7 जनवरी को छत्तीसगढ़ में माता राजिम या कहे कि राजिम तेलिन दाई की जयंती मनाई जाती है. तैलिक(साहू) समाज की कुल गौरव माता राजिम भगवान विष्णु की भक्त थीं. कहते हैं कि उनके नाम पर राजीव लोचन मंदिर का नाम पड़ा. राजिम माता की कहानी सदियों पुरानी है.

तेली इंडिया के मुताबिक माता राजिम की कहानी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 45 किलोमीटर दूर राजिम नगर की है. कथा के मुताबिक माता राजिम के नाम पर ही राजिम नगर का नाम पड़ा और इसी नाम पर भगवान विष्णु का प्राचीन मंदिर राजिम लोचन स्थापित हुआ. हालांकि बाद में यह राजीव लोचन मंदिर के नाम से जाना गया.

ऐसा कहा जाता है कि राजिम नगर का नाम राजिम तेलिन के नाम पर ही रखा गया है. पहले इस जगह का नाम पदमावती पुरी था. महानदी, सोंढुर और पैरी इन नदियों के कारण यह जगह उपजाऊ थी. तिलहनों के लिए खासकर यह जगह बहुत ही अच्छी जमीन है. तैलिक वंश के लोग तिलहन की खेती करके तेल निकालते थे. इन्हीं तैलिकों में एक धर्मदासभी था, जिनकी पत्नी का नाम शांति था, दोनों विष्णु के बड़े भक्त थे. उनकी बेटी थी राजिम जिसके साथ अमरदास नाम के व्यक्ति की शादी हुई. राजिम तेलिन विष्णु की भक्तिन थी. राजीव लोचन के मुर्ति विहीन मंदिर में जाकर पूजा करती थी. उस मूर्ति विहीन मन्दिर के बारे में जो कहानी उस वक्त प्रचलित थी वह इस प्रकार थी-

सतयुग में राजा रत्नाकर नाम का एक राजा था, जो यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे, परन्तु राक्षसों द्वारा यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने के कारण यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाया. राजा रत्नाकर ने विष्णु के अवतार राजीव लोचन का स्मरण किया और कठोर तपस्या करने लगे. विष्णु तक राजा का आन्तनाद पहुंचा, लक्ष्मी को भी सुनाई दिया. लक्ष्मी ने अनुरोध किया कि विष्णु रत्नाकर की मदद करने उसी वक्त वहां पहुंचे।विष्णु वहां पहुंचे और यज्ञ पूर्ण कराया, उसके बाद उन्होंने राजा से वर मांगने को कहा.

राजा रत्नाकर भाव विभोर हो गया भाव विभोर होकर राजा ने कहा – “आपके जिस स्वरुपका मैं अभी दर्शन कर रहा हूँ, उसी स्वरुप का मैं रोज सपरिवार दर्शन करता रहूँ.” विष्णु जी ने ये सुनकर बैकुन्ठ में जाकर विश्वकर्मा को बुलाया और उनसे कहा कि “मैं एक कमल का फूल धरती पर छोड़ रहा हूँ – उस कमल के ऊपर ही मेरे नाम के एक मन्दिर का निर्माण करो.” इस प्रकार विश्वकर्माजी द्वारा रातों-रात एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराया. राजा रत्नाकर सपरिवार मन्दिर में राजीव लोचन के दर्शन करते थे, और पूजा करते थे.

इसके बाद बहुत साल बीत गये. बहुत काल बीत गया. एक बार राजीव लोचन की मूर्ति की प्रशंसा सुनकर कांकेर के कंडरा राजा दर्शन के लिये आये. उस वक्त यह जगह जंगल में परिवर्तित हो गई थी. कांकेर का राजा राजीव लोचन के दर्शन कर सोचने लगे कि “ऐसे दिव्य विशाल मूर्ति को इस जंगल से निकालकर अपने राज्य में प्रतिष्ठित करूँ’ – जब राजा ने पुजारियों से अपने मन की बात कही, तो पुजारी तैयार नहीं हुए. धन का लालच दिया पुजारी तैयार नहीं हुए. तब कांकेर के राजा ने जबरदस्ती मूर्ति को उठवाकर एक नाव में रखवाया और दसरी नाव में स्वयं बैठ महानदी के जल मार्ग से अपने राज्य कांकेर की ओर जाने लगे. मार्ग में भारी तूफान आया और इस तूफान के कारण कांकेर नरेश अपनी नाव के साथ रुद्री धाट के पास महानदी के जल में डूब गया.

इधर राजिम तेलिन जो मन्दिर में जाकर पूजा करती थी, मूर्ति विहीन मन्दिर में जाकर, जब वह एक दिन नहाने गई, तो उसे एक शिला दिखाई दिया. अपने हाथ से रेत हटाकर जब उसने देखा कि शिला बहुत बड़ी तथा गोल और चिकनी है, उसने सोचा कि यह तो धानी (तेल निकालने का यन्त्र) के ऊपर रखने लायक है. और उसके बाद उसशिला को घर ले आई और ऊखल पर रख दिया. ऊखल लकड़ी काबना होता है.  इस ऊखल के भारीपन और रगड़ से तेल निकलता है. जबसे राजिम तेलिन ने उस शिला को धानी में रखा, तब से उसके व्यवसाय में उत्तोरोत्तर वृद्वि होने लगी.

उस वक्त दुर्ग में जगपाल नाम के विष्णु पूजक राजा राज्य करते थे. उनका नित्य का नियम था कि दुर्ग से प्रतिदिन घोड़े पर बैठकर त्रिवेणी संगम में स्नान कर राजिम में भगवान के मूर्ति विहीन मन्दिर का दर्शन कर और शंकरजी का दर्शन कर अपने राज्य को वापस चले जाते थे. एक दिन रात में राजीव लोचन ने स्वप्न दिया कि वे राजिम तेलिन के घर जाएँ और वहाँ धानी के ऊपर जो शिला रखी है, उसे मन्दिर में ले आयें क्योंकि उसी शिला में वे विद्यमान है.

राजीव लोचन ने कहा””राजिम तेलिन से बलपूर्वक लेकर उसको दुखी नहीं करना क्योंकिराजिम तेलिन मेरी अन्यन्य भक्त है.”राजा जगपाल राजिम तेलिनके घर में जाकर धानी पर रखी शिला को देखकर भाव विभोर हो गये. राजिम तेलिन एक बार राजा की ओर देखा और एक बार शिला की ओर. राजा जगपाल ने तेलिन से उस शिला की मांग की. तेलिन ने साफ इन्कार कर दिया. उस शिला की प्राप्ति के बाद उसकी दशा सुधर गई थी. राजा जगपाल ने उसे स्वर्ण राशि का प्रलोभन दिखाया कि शिला के तील के बराबर वे स्वर्ण राशि ले ले और शिला उन्हें दे दे. और फिर राजीव लोचन की मूर्ति के शिला को तराजू के पलड़े में रखा गया और दूसरी ओर सोना रखा गया. राजिम तेलिन ने सोचा कि राजीव लोचन अगर यही चाहते है तो फिर यही होगा, किन्तु वह तराजू का पलड़ा इंच भर भी नहीं उठा. राजा जगपाल जितनी भी स्वर्ण रखते गये, पर तराजू नहीं उठा उस रात को राजा जगपाल को फिर सेस्वप्न में राजीव लोचन दिखाई दिये और सुनाई दीया कि – “तुझे अपने धन का बहुत अंह है, इसीलिए मैने तुझे सबक सिखाया, खैर तेरे सुकर्मो से मैं खुश हूँ. इसीलिए ध्यान से सुन अब तुझे क्या करना पड़ेगा ? तू जिस पलड़े पर स्वर्ण रखता है, उस पर सवा पत्र तुलसी भी रख देना. “राजा जगपाल भूखे प्यासे सो गये थे. अब उनके मन में खुशी हुई. अगले दिन स्वर्ण के साथ पलडे में सवा पत्ता तुलसी रख शिला के बराबर स्वर्ण राजिम तेलिन को देकर मन्दिर में शिला को प्रतिष्ठित कराया.  राजिम तेलिन राजीव भक्तिन माता के नाम से जानने लगी.

एक दिन भक्तिन माता राजीव लोचन के मंदिर द्वार पर जाकर बैठ गई. वह ध्यान समाधि में बदल गया और उन्हें मोक्ष मिला. इस क्षेत्र के भक्तजन बसंतपंचमी को राजीव भक्तिन माता महोत्सव मनाते हैं. राजीव लोचन मन्दिर के दूसरे परिसर पर राजिम तेलिन का मन्दिर है. इस मन्दिर के गर्भगृह में एक शिलाप ऊँची वेदी पृष्ठभूमि से लगा हुआ है – इसके सामने ऊपरी भाग पर सूरज, चाँद एवं सितारे के साथ साथ एक हाथ ऊपर उठाकर प्रतिज्ञा की मुद्रा में खुदा है, जिसका अर्थ यह है कि जब तक धरती पर सूरज, चाँद एवं सितारे आलोक बिखेरते रहेंगे. राजिम तेलिन की निष्ठा भक्ति और सतीत्व की गवाही देते रहेंगे. राजिम तेलिन की धानी भी एक जगह स्थापित है. शिल्लापट्ट के मध्य जुते बैलयुक्त कोल्ह का शिल्पांकन है.  इसी मंदिर में राजिम तेलिन सती बनी थी. उस मन्दिर की दीवारों में धुंए के निशान मन को दुखी कर देती हैं. कालांतर में उस जगह का नाम राजिम तेलिन के नाम पर ही रखा गया.
( तेली इंडिया)


राजिम तेलिन दाई की कहानी के बाद आइये आपको बताते हैं कि माता राजिम जयंती को लेकर किस तरह का इतिहास है.

शासकीय इंजीनियरिंग कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर घनाराम साहू के फेसबुक से प्राप्त जानकारी के मुताबिक- 7 जनवरी को मनाया जाने वाला माता राजिम की जयंती न तो ऐतिहासिक है और न ही पौराणिक है, बल्कि इस तिथि में सन् 1991-92 में प्रथम बार जयंती समारोह आयोजित हुआ था. तब से ही 7 जनवरी को जयंती समारोह राजिम में आयोजित किए जा रहे हैं.

राजिम का प्रथम ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण अंग्रेज अधीक्षक रिचर्ड जेंकिन्स ने सन 1825 में किया था . उनके अनुसार ” जुड़ावन सुकुल ” नामक विद्वान् ने राजिम महात्मय का हिंदी अनुवाद किया था, लेकिन यह अनुवाद भी अब उपलब्ध नहीं है.

सन 1869 में अंग्रेज पुरातत्ववेता जे. डी. बेग्लर और 1882 में सर एलेग्जेंडर कनिंघम राजिम की यात्रा कर शोधपत्र प्रकाशित किये थे.

सन 1898 में पं सुंदरलाल शर्मा जी ने ” श्रीराजीवक्षेत्रमहात्मय ” नामक पद्य ग्रन्थ लिखा था, जिसका प्रकाशन सन 1915 में हुआ था. इस ग्रन्थ में राजिम भक्तिन का संक्षेप में वर्णन है.

सन 1915 में पं चंद्रकांत पाठक ने ” श्रीमद्रारीवलोचनमहात्मय ” नामक संस्कृत ग्रन्थ प्रकाशित किया था, लेकिन इसमें राजिम भक्तिन का कोई उल्लेख नहीं है.

लोक में प्रचलित कथाओं के अनुसार राजिम भक्तिन माता से प्राप्त विग्रह से ” राजिमलोचन ” मंदिर का निर्माण राजा जगतपाल ने सतयुग में किया था. इतिहासकार राजा जगतपाल को कलचुरी सामंत जगपाल देव मानते हैं, जिन्होंने 3 जनवरी 1145 ( माघ शुक्ल अष्टमी )को रामचंद्र मंदिर का निर्माण कराकर लोक को समर्पित किया था. उस मंदिर का शिलालेख वर्तमान राजिमलोचन मंदिर की दीवाल में जड़ा हुआ मिला है.

मंदिर परिसर में राजिम भक्तिन माता का सती स्तम्भ है, जिसमें एक भद्र पुरुष, एक भद्र महिला तथा आजु-बाजु एक – एक परिचारिका दिखाई दे रही हैं. कहा जाता है कि इस स्तम्भ का निर्माण 12 – 13 वीं सदी में हुआ था. यद्यपि इस स्तम्भ के चित्रांकन का अभी तक तर्कपूर्ण व्याख्या नहीं हुआ है फिर भी मैं आसन में विराजे पुरुष को राजा जगतपाल और महिला को उनकी रानी झंकावती मानता हूँ और झंकावती ही राजिम भक्तिन माता है.