-लल्लूराम डेस्क

भूपेश बघेल 23 अगस्त को अपना 59वां जन्मदिवस मना रहे हैं. जनता अपने मुख्यमंत्री को खूब बधाईयां दे रही हैं. दो दिन पहले ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जंयती  20 अगस्त 2020 को भूपेश बघेल ने किसान, गौपालकों और तेंदूपत्ता संग्राहकों को बड़ी सौगातें दी हैं.

दरअसल, करोड़ो रुपये जनता के खाते में देना भूपेश बघेल की उस राजनीति की एक कड़ी भर है. जिसमें वो पब्लिक ओरिएंटेड,  फार्मर ओरिएंटेड पॉलिटिक्स कर रहे हैं. जब से भूपेश सत्ता में आए हैं. किसान और आम को लगातार समृद्ध बनाने के मिशन पर काम कर रहे हैं. वित्तीय स्थिति को लेकर विपक्ष आलोचना कर रहा है लेकिन भूपेश बघेल ने दिखाया है कि जो एकबार उन्होंने वादा किया है, उसे निभाते हैं.

बकौल रविंद्र चौबे जिस तरीके से भूपेश बघेल किसी कार्य को ठान लेते है, उसे पूरा करते हैं. वे दृढ़ निश्चयी व्यक्ति हैं. जिनके निश्चय में एक दृष्टि है.  जिस शब्द को कहा जाता है और न केवल उनके निश्चय में एक विजन होता है. वे सोचते हैं कि हम कोई भी ऐसा काम करेंगे, उसका केंद्र बिंदु कौन होगा. यहां का गरीब होगा. यहां का किसान होगा. यहां के स्थानीय लोग होंगे और छत्तीसगढ़ का विकास किस तरीके से होगा.

भूपेश बघेल ने राजनीतिक तौर पर कम समय में अपनी राष्ट्रीय राजनीति में साख जताई है. भूपेश बेहद सांप्रदायिक, क्रोनी कैपटलिज्म और गैर बराबरी की राजनीति के खिलाफ सबसे ज़्यादा मुखर हैं.

भूपेश बघेल के राजनीतिक सलाहकार विनोद वर्मा कहते हैं कि भूपेश बघेल  देश के चुनिंदा नेताओं में से हैं.  जो आरएसएस की नीतियों पर, उसकी कार्यप्रणाली पर खुले तौर पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने बार-बार संघ के नेताओं से पूछा है कि ये जो आपकी भाजपा सरकार है, इसकी नीतियों पर आप कुछ क्यों नहीं बोलते हैं.

विनोद वर्मा कहते हैं कि भूपेश बघेल ने सावरकर के बारे में भी सवाल उठाए. ऐसे संगठनों के खिलाफ सवाल उठाना उनकी बुनियाद में है, उनके ज़ेहन में बसा है कि यह देश सबका है और इसमें भेदभाव की कोई जगह नहीं है. एक दूसरे से दूरी बनाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए. ना ही उसे स्वीकार किया जाना चाहिए.

गांधीवादी राजनीति पर यकीन रखने वाले डॉक्टर विक्रम सिंघल भूपेश बघेल के बारे में कहते हैं ”जब हम मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की बात करते हैं तो मुझे उनके विषय मे दो मुख्य बातें लगती है. पहला- उन्होंने क्षेत्रीय राजनीति में विचारधारा के महत्व को और कांग्रेस के विचारधारा के भीतर गांधी की महत्व को स्थापित किया. चाहे नाथूराम गोडसे के ऊपर बात करन हो या सावरकर के ऊपर. उन्होंने खुलकर अपनी राय रखी है. उन्होंने इसे लेकर विपक्ष पर भी हमला किया है. दूसरी बात- भूपेश बघेल ने जितनी योजनाए लागू की हैं. हर एक के भीतर उन्होंने गांधी को ढूंढने की कोशिश की है. ये मुझे लगता है कि कुछ उन्होंने छत्तीसगढ़ में अलग किया है. विशेषकर पहले हम ये नहीं देखते थे. ये माना जाता है कि भूपेश बघेल साफगोई से बात कहने और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विश्वास करने वाले व्यक्ति हैं.

भूपेश बघेल का जन्म 23 अगस्त 1961 को दुर्ग के एक कृषक परिवार में हुआ था. उनकी परवरिश समाजवादी माहौल में हुई. उनके पिता किसान और सामाजिक नेता थे. वे समाजवादी नेता था लेकिन भूपेश कांग्रेसी बने. ज़ेहनी तौर पर कांग्रेसी. विचारधारा को लेकर भूपेश बघेल से अपने पिता से मतभेद आज भी ज़ाहिर हैं.

उनके शिक्षक बताते हैं कि बचपन से ही भूपेश बघेल में शिक्षक बनने के नैसर्गिक गुण थे. पाटन के मर्रा के स्कूल में गणित पढ़ाने वाले उनके शिक्षक हीरा लाल ठाकुर बताते हैं कि भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बनने के बाद जब पाटन के मर्रा पहुंचे तो उन्होंने मेरे चरण सपर्श करते हुए, स्कूल के दिनों को याद करते हुए बताया – ”छात्र जीवन के दौरान आपने मुझे गलतियों पर मार लगाई है और शायद यही वजह है कि आज मैं यहा तक पहुंचा।”

मुख्यमंत्री के बचपन के दिनों को याद करते हुये हीरालाल कहते है क- ”पढ़ने में तो वे सामान्य छात्र थे. लेकिन उनमें जीवटता गजब की थी. वे स्कूल पढ़ने के लिए 14 किलोमीटर रोज़ पैदल चलकर आते थे. शुरू से ही वे जुझारू व संघर्षशील थे. उन्हें किसी के साथ गलत या अन्याय होता देख सहन नही होता था. वे अपनो से बड़े कक्षा के छात्रों की समस्या लेकर प्रिंसिपल के पास पहुंच जाते और उनकी समस्या का निराकरण करवाते. उनके इस व्यवहार को देखकर एक बार स्कूल के शिक्षक ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से कहा- ‘कइसे रे भूपेश तैं नेता बन जाबे का रे’ और एक दिन भूपेश बघेल के शिक्षक की बात सही साबित हुई”

भूपेश बघेल के परिवार ने अपनी बड़ी ज़मीन का हिस्सा भिलाई स्टील प्लांट में दी थी. भूपेश बघेल की लोकतात्रिक सोच खुद ब खुद उनके पारिवारिक माहौल से विकसित हुई है. भूपेश बघेल ने 80 के दशक में 84-85 यूथ कांग्रेस के साथ अपनी सियासी पारी शुरू की थी. 91से 94 तक वे दुर्ग के यूथ कांग्रेस के जिलाध्यक्ष थे. वे राजनीति चंदू लाल चंद्राकर और वासुदेव चंद्राकर की शागिर्दिगी में सीख रहे थे.

रविंद्र चौबे उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं – ”हम लोग राजनीति में एक ही पाठशाला से निकले है. आदरणीय दाऊ वासुदेव चंद्राकर जी के यहाँ से. एक साथ यूथ कांग्रेस की राजनीति हम लोगों ने की.”

भूपेश बघेल जब यूथ कांग्रेस के दुर्ग जिले के अध्यक्ष थे तब बस्तर जिले के अध्यक्ष राजेश तिवारी थे. जो आज उनके संसदीय सलाहकार हैं. राजेश तिवारी कहते हैं- ‘हम लोग जब मध्य प्रदेश जाते थे. कांग्रेस की जब बैठके होती थीं.  मध्यप्रदेश बड़ा था. संभाग स्तर पर सामूहिक चर्चा होती थी. संभाग से किसी एक को बोलने का मौका मिलता था. हम लोग एक-दूसरे पर बोलने की ज़िम्मेदारी डालते थे. तो उस समय भूपेश बघेल खुद आगे आते थे कि छत्तीसगढ़ की तरफ से मैं बोलूंगा. नेतृत्व करने का जो स्वाभाविक गुण होता है उस समय भी उनमें दिखता था.’

यूथ कांग्रेस के रुप में भूपेश बघेल ने सिर्फ संगठन पर आवाज़ नहीं उठाते थे. जमीन पर जबरदस्त सक्रियता दिखती थी. ये वो दौर था जब देश मंडल से निकलकर कमंडल की राजनीति में पहुंचा था. अधोध्या का विवादास्पद ढांचा गिरा दिया गया था. तब युवा कांग्रेस के जिलाध्यक्ष के रुप में उन्होंने पदयात्रा की.

वनोद वर्मा कहते हैं – ‘जब वे यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष थे. 1992 में. उस समय बाबरी मस्जिद दी गई तो 350 किलोमीटर की पदयात्रा उन्होंने सद्भावना यात्रा के नाम से की थी. यूथ कांग्रेस के का कौन सा अध्यक्ष जो देश में उस वक्त रहा होगा, जिसमें वह सोचता होगा कि यह कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की नीतियों के खिलाफ है, इस देश की बुनियाद के खिलाफ है और इस पर हमें प्रतिरोध दर्ज कराना चाहिए. वो  350 किलोमीटर की पदयात्रा उन इलाकों में करता है जो उनका चुनावी क्षेत्र भी नहीं होने वाला है. तो उनकी जो बुनियाद है, उनकी सोच है. उन्होंने हमेशा से गांधी – नेहरू की नीतियों के परिपेक्ष्य में देखता है.’

युवा नेता को पहली बार टिकट मिलने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है. राजेश तिवारी बताते हैं कि उस समय पाटन विधानसभा से किसी और की टिकट हो गई थी. लेकिन वासुदेव चंद्राकर को महसूस हुआ कि मध्यप्रदेश में अगर सरकार बनानी है तो सही टिकिट का चयन होना चाहिए. उस समय जिला कांग्रेस अध्यक्षों का अधिकार काफी था. वासुदेव ने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए हाईकमान से कहकर भूपेश बघेल को पाटन विधानसभा से टिकट दिलाया और भूपेश बघेल ने इस बात को सच भी साबित किया. भूपेश बघेल चुनाव जीत गए

बघेल को वर्ष 1994 में मध्य प्रदेश युवा कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया. वे वर्ष 1998 में विधानसभा के लिए पुनः निर्वाचित हुए और दिग्विजय सिंह सरकार में राज्यमंत्री (लोक शिकायत विभाग में) नियुक्त किए गए. 1999 में वे परिवहन मंत्री बनाए गए इस दौरान वे हाउसिंग बोर्ड के डायरेक्टर भी रहे.

विनोद वर्मा बताते थे कि मंत्री रहते हुए भी वे बेखौफ और निडर हुआ करते थे. वे एक वाकया सिवना का बताते हैं- भूपेश अविभाजित मध्यप्रदेश के परिवहन मंत्री थे. उस समय की एक घटना है मेरे ख्याल में आती है. वे सिवनी के एक इलाके की एक सड़क मार्ग से कहीं जा रहे थे. टोल नाके पर कुछ ट्रक लगा-लगाकर खड़े थे. तो उन्होंने पूछा कि क्या हुआ. तो कुछ लोगों ने बताया कि वसूली हो रही है और भूपेश बघेल ने उन्हें ललकारा. उनके पीछे गाड़ी लगाकर पीछा किया. वे भाग उठे. भूपेश बघेल ने गाड़ी से दौड़ाकर उन्हें पकड़वाया.  मतलब उन्हें इस बात का डर ही नहीं था कि वह लोग वसूली कर रहे थे इनके पास बंदूके होंगी. इनके पास हथियार होंगे. उनकी जान को खतरा हो सकता है. लेकिन उन्होंने दौड़ाकर पीछा किया. जो उस समय के अखबारों में सुर्खियां भी बनी थी. तो इस तरह की राजनीति करने वाले देश में कम लोग हैं जो स्वयं के उदाहरण से यह बताते हैं कि यह राजनीति ऐसी होनी चाहिए.

इस बीच, नए राज्य की बात होने लगी. भूपेश बघेल अलग छत्तीसगढ़ राज्य बनाने की राजनीतिक मांग करने वाले नेताओं में शुमार थे. जब साल 2000 में जब छत्तीसगढ़ बना तो आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग करने वालों के अगुवा वे ही थे. बकौल राजेश तिवारी, अजीत जोगी को राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनाने में उनका बड़ा योगदान था. राजेश तिवारी कहते हैं-  ‘उस समय लगभग 47- 48 कांग्रेस के विधायक थे. बहुमत के साथ यहां सरकार बनने वाली थी. उनमें लगभग 38 से 39 विधायकों ने भूपेश बघेल के नेतृत्व में पूरे प्रदेश का दौरा किया. सबकी उसमें सहमति बनी कि आदिवासी मुख्यमंत्री बनना चाहिए. भूपेश बघेल ने सहमति बनाई कि अगर विधायको के बीच से मुख्यमंत्री चुनना होगा तो महेंद्र कर्मा होंगे और गैर विधायको के नाम से मुख्यमंत्री के नाम के चयन होगा तो वे अजित जोगी होंगे. इसे लेकर विधायकों ने सोनिया गांधी से भी मुलाकात की. अजित जोगी को मुख्यमंत्री बनाने में भूपेश बघेल का बहुत बड़ा हाथ था.

हालांकि ये बात जल्द ही भूला दी गई और दोनों के रिश्तों में तल्खी आने लगी. साल 2000 में जब छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आया, तब बघेल राजस्व, लोक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग और राहत कार्य के पहले मंत्री बने लेकिन शुरु में उन्होंने मंत्री बनने से मना कर दिया. इसके पीछे भी दिलचस्प कहानी है.राजेश तिवारी बताते हैं कि अजित जोगी के नेतृत्व में सरकार बनी उस समय यह तय हुआ था कि दिग्विजय सिंह के मंत्रीमंडल में जितने लोग मंत्री है. वे सभी छत्तीसगढ़ में भी बनेंगे. उस समय भूपेश बघेल को कैबिनेट मंत्री बनाने की बात हुई थी. लेकिन भूपेश बघेल ने वादाखिलाफी होने पर शपथ ग्रहण करने से मना कर दिया.  जोगी ने वासुदेव चंद्राकर से चर्चा की- जिन्हें मुख्यमंत्री भुपेश बघेल राजनीतिक गुरु के रूप में मानते है-  उस समय वासुदेव चंद्राकर के कहने पर मंत्रिमंडल में शामिल होना स्वीकार किया. बाद में भूपेश कैबिनेट स्तर के मंत्री बनाये गए.राजेश कहते हैं कि भूपेश अपनी बात कहने में कतई नहीं डरते. दिग्विजय सिंह के मंत्रीमंडल में रहते हुए कई बार ऐसे विषय आते थे तो भूपेश उनसे भी लड़ पड़ते थे.

2003 तक भूपेश और जोगी के बीच मतभेद हो चुके थे. इस बीच 2003 कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई तो भूपेश बघेल उपनेता प्रतिपक्ष रहे. भूपेश बघेल ने अपनी किस्मत दो दफे लोकसभा चुनाव में भी आज़माई लेकिन दोनों बार निराशा हाथ लगी. वर्ष 2004 में वे दुर्ग लोकसभा से हारे और 2009 में उन्हें रायपुर से हार मिली. वे 2008 का विधानसभा चुनाव भी हार चुके थे.

साल 2008 से 2013 का वक्त भूपेश बघेल के लिए निराशा का वक्त था. लेकिन इसी दौर में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई. ये पहचान थी रमन सिंह और अजीत जोगी के धुर विरोधी नेता की. वे विधानसभा में नहीं थे लेकिन अदालती लड़ाई में रमन को घेरे रहते. वे पुष्प स्टील के मसले पर कोर्ट गए और उस समय तक ईमानदार माने जाने वाले रमन सिंह को भ्रष्टाचार के मामले में पहली बार घेर लिया. इसके बाद उन्होंने बालको को सस्ती दर पर ज़मीन देने के खिलाफ भी अदालती मोर्चा खोला और सुप्रीम कोर्ट तक गए. साल मई 2013 में जब परिवर्तन यात्रा शुरु हुई तो जिन चार लोगों पर इस यात्रा की ज़िम्मेदारी थी, उनमें से भूपेश बघेल एक थे.

(क्रमश:)