Birsa Munda Death Anniversary: आदिवासी हीरो और अंग्रेजों को लोहे के चने चबवाने वाले शहीद बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की 9 जून को पुण्यतिथि मनाई जाती है. भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया. उन्होंने काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया. उन्हें भगवान बिरसा मुंडा भी कहा जाता जाता है.

बिरसा मुंडा एक ऐसे अकेले आदिवासी नेता थे जिन्होंने अंग्रेजों की नीतियों को अच्छी तरह से पहचान लिया था. उनकी गिरफ्तारी खूंटी के डोम्बारी बुरू में उस वक्त हुई जब वह लोगों को संबोधित कर रहे थे. इसके बाद 9 जून 1900 को जेल में उनकी मृत्यु हो गयी. उनकी याद में पूरा देश 15 नवंबर को जनजातीय गौरव के रूप में मनाता है. आज उनके नाम से देश में कई योजनाएं चलाई जाती है. झारखंड में भी उनके नाम से राज्य सरकार कई सारी योजनाएं संचालित कर रही है.

बिरसा मुंडा के इतिहास से जुड़ी जानकारी

15 नवंबर 1875 को झारखंड के आदिवासी दम्पति सुगना मुंडा और करमी मुंडा के घर बिरसा मुंडा का जन्म हुआ. उनका जन्म झारखंड के खुटी जिले के उलीहातु गांव में हुआ था. साल्गा गांव में प्रारम्भिक पढाई के बाद इन्होंने चाईबासा जी.ई.एल चार्च (गोस्नर एवं जिलकल लुथार) विद्यालय से आगे की शिक्षा ग्रहण की.

बिरसा मुंडा ने साहस की स्याही से पुरुषार्थ के पृष्ठों पर शौर्य की शब्दावली रची. उन्होंने हिन्दू धर्म और ईसाई धर्म का बारीकी से अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदिवासी समाज मिशनरियों से तो भ्रमित है ही हिन्दू धर्म को भी ठीक से न तो समझ पा रहा है, न ग्रहण कर पा रहा है.

बिरसा मुंडा की उम्र जरूर छोटी थी, लेकिन कम उम्र में ही वो आदिवासियों के भगवान बन गए थे. 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों द्वारा लागू की गई जमींदारी और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई छेड़ी. बिरसा ने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी बगावत की. ये महाजन कर्ज के बदले आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर लेते थे. बिरसा मुंडा के निधन तक चला ये विद्रोह ‘उलगुलान’ नाम से जाना जाता है.

औपनिवेशिक शक्तियों की संसाधनों से भरपूर जंगलों पर हमेशा से नजर थी और आदिवासी जंगलों को अपनी जननी मानते हैं. इसी वजह से जब अंग्रेजों ने इन जंगलों को हथियाने की कोशिशें शुरू कीं तो आदिवासियों में असंतोष पनपने लगा. अंग्रेजों ने आदिवासी कबीलों के सरदारों को महाजन का दर्जा दिया और लगान के नए नियम लागू किए. नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे आदिवासी कर्ज के जाल में फंसने लगे. उनकी जमीन भी उनके हाथों से जाने लगी. दूसरी ओर, अंग्रेजों ने इंडियन फॉरेस्ट एक्ट पास कर जंगलों पर कब्जा कर लिया. खेती करने के तरीकों पर बंदिशें लगाई जाने लगीं.

आदिवासियों का धैर्य जवाब देने लगा. तभी उन्हें बिरसा मुंडा के रूप में अपना नायक मिला. 1895 तक बिरसा मुंडा आदिवासियों के बीच बड़ा नाम बन गए. लोग उन्हें ‘धरती बाबा’ नाम से पुकारने लगे. बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को दमनकारी शक्तियों के खिलाफ संगठित किया. अंग्रेजों और आदिवासियों में हिंसक झड़प होने लगीं. अगस्त 1897 में बिरसा ने अपने साथ करीब 400 आदिवासियों को लेकर एक थाने पर हमला बोल दिया. जनवरी 1900 में मुंडा और अंग्रेजों के बीच आखिरी लड़ाई हुई. रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई इस लड़ाई में हजारों आदिवासियों ने अंग्रेजों का सामना किया, लेकिन तोप और बंदूकों के सामने तीर-कमान जवाब देने लगे. बहुत से लोग मारे गए और कई लोगों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया.

बिरसा पर अंग्रेजों ने 500 रुपये का इनाम रखा था. उस समय के हिसाब से यह रकम काफी ज्यादा थी. कहा जाता है कि बिरसा की ही पहचान के लोगों ने 500 रुपये के लालच में उनके छुपे होने की सूचना पुलिस को दे दी. आखिरकार बिरसा चक्रधरपुर से गिरफ्तार कर लिए गए. अंग्रेजों ने उन्हें रांची के जेल में कैद कर दिया. कहा जाता है कि यहां उनको धीमा जहर दिया गया. जिससे 09 जून 1900 को बिरसा मुंडा शहीद हो गए.

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