रायपुर– छत्तीसढ़ की विविधता से भरी सांस्कृतिक धरोहर को एक सूत्र में पिरोने वाले प्रसिद्ध कवि डॉ नरेन्द्र देव वर्मा की 4 नवंबर यानि आज जयंती है.छत्तीसगढ़ महतारी के लाड़ले बेटे डॉ नरेन्द्र देव वर्मा कवि के साथ साथ अच्छे उपन्यासकार, समीक्षक और भाषाविद थे. इनके द्वारा रचित कविता “अरपा पैरी के धार,महानदी हे अपार” छत्तीसगढ़ के हर कोने में लोकप्रिय है और यही वजह है कि भूपेश बघेल की सरकार ने इस कविता को राज्यगीत घोषित कर डॉ नरेन्द्र देव वर्मा जैसे पुरखों की ख्याति को अजर अमर कर दिया है.

डॉ नरेन्द्र देव वर्मा का जन्म 4 नवंबर 1939 को सेवाग्राम वर्धा में हुआ.उनके पिता धनीराम वर्मा पेशे से शिक्षक थे. उनके पांच पुत्रों में से एक मात्र नरेंद्र देव की शादी हुई. बाकी तीन सन्यासी बन गए,जबकि एक पुत्र अविवाहित रहकर पं. रविशंकर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक है तथा स्वामी आत्मानंद जी के ‘स्वप्न केन्द्र’ विवेकानंद विद्यापीठ के संचालक हैं.

डॉ वर्मा बाल्यकाल से कुशाग्र बुद्धि के थे और अत्यंत कम उम्र में उन्होंने छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति और भाषा को वैश्विक पहचान दिलाई.उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा व साहित्य के उद्विकास में रविशंकर विश्वविद्यालय से पीएचडी की एवं छत्तीसगढ़ी भाषा व साहित्य में कालक्रमानुसार विकास का महान कार्य किया. इनका छत्तीसगढ़ी गीत संग्रह ‘अपूर्वा’ है, इसके अलावा सुबह की तलाश (हिन्दी उपन्यास) , छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास, हिन्दी स्वछंदवाद प्रयोगवादी, नयी कविता सिद्धांत एवं सृजन, हिन्दी नव स्वछंदवाद आदि प्रकाशित ग्रंथ हैं. डॉ नरेन्द्र देव द्वारा रचित ‘मोला गुरु बनई लेते’ छत्तीसगढ़ प्रहसन अत्यन्त लोकप्रिय हुआ.उन्होंने कुछ पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया-मोंगरा, श्री माँ की वाणी, श्री कृष्ण की वाणी, श्री राम की वाणी, बुद्ध की वाणी, ईसा मसीह की वाणी, मोहम्मद पैंगबर की वाणी.

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, वस्तुत: छत्तीसगढ़ी भाषा-अस्मिता की पहचान बनाने वाले गंभीर कवि थे. उनके बड़े भाई ब्रम्हलीन स्वामी आत्मानंद जी का प्रभाव उनके जीवन पर बहुत अधिक पड़ा था. डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने यद्यपि गृहस्थ जीवन व्यतीत किया, फिर भी उनके व्यक्तित्व में विवेकानंद भाव धारा एवं रामकृष्ण मिशन का गहन प्रभाव था, यही कारण है कि दर्शन की गहराइयों में डूबकर काव्य-सृजन किया करते थे. डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के जीवन का दूसरा पक्ष लोककला से इस तरह जुड़ा था कि छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के प्रसिद्ध कलाकार स्व महासिंह चंद्राकर के रात भर चलने वाले लोकनाट्य ‘सोनहा बिहान’ के प्रभावशाली उद्घोषक हुआ करते थे. उनका स्वर, श्रोताओं और दर्शकों को अपने सम्मोहन में बांध लेता था.सोनहा बिहान ने छत्तीसगढ़ में मंचीय अभियान का नया इतिहास रच दिया. डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा जैसे विलक्षण मंच संचालक पहली बार लोकमंच में अवतरित हुए. वे कथाकार कवि और दार्शनिक तो थे ही, छत्तीसगढ़ के ख्याति प्राप्त भाषा-विज्ञानी भी थे. उन्होंने अपने गीतों की स्वरलिपि भी तैयार की. डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा छत्तीसगढ़ के पहले बड़े लेखक है जो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से साहित्य रचना करते थे. वे चाहते तो केवल हिन्दी में लिखकर यश प्राप्त कर लेते, लेकिन उन्होंने छत्तीसगढ़ी की समृद्धि के लिए दृढसंकल्पित थे.
स्वामी आत्मानंद ने अपने अनुज डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के बारे में मरणोपरांत लेख लिखा है.वे लिखते हैं कि सोनहा बिहान की लोकप्रियता की खबरें सुनकर वे भी इसकी प्रस्तुति देखने के लिए लालायित हो उठे.1978 के अंत में महासमुंद में एक प्रदर्शन तय हुआ. स्वामी जी को डाक्टर साहब ने बताया कि आप चाहें तो उस दिन प्रदर्शन देख सकतें हैं. महासमुंद में विराट दर्शक वृंद को देखकर स्वामी जी रोमांचित हो उठे. उनके भक्तों ने उन्हें विशिष्ट स्थान में बिठाने का प्रयत्न किया लेकिन डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने स्वामी जी को दर्शकों के बीच जमीन पर बैठकर देखने का आग्रह किया. स्वामी जी उनकी इस व्यवस्था से अभिभूत हो उठे. उन्होंने उस घटना को याद करते हुए लिखा है–’नरेन्द्र तुम सचमुच मेरे अनुज थे’
नरेन्द्र देव वर्मा मैट्रिक तक सामान्य विद्यार्थी थे. सागर विश्वविद्यालय में ग्रेजुएशन के दौरान उनकी तेजस्विता परवान चढ़ी.26 अक्टूबर 1961 को पंड़ित जवाहर लाल नेहरू के निर्देश पर भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा यूथ फेस्टिवल आयोजित किया गया. तालकटोरा स्टेडियम में अखिल भारतीय वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ. विषय था ‘शक्तिशाली अणु शस्त्रों से विश्व शांति संभव है.’ डॉ. नरेन्द्र देव सागर विश्वविद्यालय से श्रेष्ठ वक्ता के रूप में पक्ष में बोलने गए थे. उन्होंने काशी विश्वविद्यालय के डॉ. विष्णु प्रसाद पाण्डे को पराजित कर प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था.
डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा उम्र के चालीसवें पड़ाव पर पहुंचने से पहले ही इस लोक को छोड़ गये. स्वामी आत्मानंद ने उनके निधन के बाद संस्मरण लिखा. इस संस्मरण में उनके प्रति स्वामी जी की प्रीति देखते ही बनती है. स्वामी आत्मानंद जी भी अकस्मात हम सबको बिलखता छोड़ गए. छत्तीसगढ़ महतारी के ये सपूत अपने छोटे से जीवन में वह काम कर गये जो सैकड़ों वर्षो का जीवन पाकर भी सामान्य प्रतिभा का व्यक्ति नहीं कर पाता. शायद उन्हें आभास था कि उनके पास समय बहुत कम है, इसलिए वे लगातार अपने दायित्वों के निर्वाह में लगे रहे.स्वामी आत्मानंद जी ने लिखा है …मृत्यु से दो तीन महीने पूर्व वह मानो सब कुछ समेट रहा था.