फीचर स्टोरी। छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने वाले, छत्तीसगढ़ियों के सुख-दुख-दर्द-भाव को शब्द देने वाले, गाँव-देहात की किस्से-कहानियों को रेखांकित करने वाले आज एक ऐसे कवि की जयंती है, जिन्होंने गुजरात से छत्तीसगढ़ की धरा में प्रवेश किया और पूरी तरह से इस माटी को अपन तन-मन-जीवन समर्पित कर दिया. हम याद कर रहे हैं लोक में वास करने वाले कवि नारायण लाल परमार को.
नारायण परमार का जन्म गुजरात में कच्छ के अंजार में 1 जनवरी 1927 को हुआ था. उनके परिवार ने गुजरात से पलायन कर छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया. माता-पिता के साथ नारायण ली भी छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले पांडुका आ गए थे. पांडुका में उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. नारायण लाल के पिता पत्रकार थे. अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध लिखने पर उनके पिता को जेल भी जाना पड़ा था. नारायण का पारिवारिक जीवन बचपन के दिनों कष्टप्रद बीते थे. लेकिन बचपन से साहित्य अनुरागी रहे परमार ने अपने अंदर की रचनात्मकता को कभी मरने नहीं दिया और निरंतर लेखन कार्य में तल्लीन रहे.
उन्होंने लेखन के शुरुआती दिनों देशभक्ति, ऋंगार, आंदोलन से जुड़ी कविताएं लिखी. लेखन के दौरान वे अध्यापन से भी जुड़ गए और स्कूल शिक्षक से नौकरी की शुरुआत कर कॉलेज के प्राचार्य तक की यात्रा पूरी की. अध्यापन में जुड़ने के साथ ही धमतरी आ गए थे फिर आजीवन धमतरी के होकर ही रह गए.
नारायण लाल की मातृभाषा गुजराती थी, लेकिन उन्होंने खुद को छत्तीसगढ़ी के प्रति समर्पित कर दिया. उन्होंने ताउम्र छत्तीसगढ़ी और हिंदी में ही लेखन कार्य किया.
उपन्यास – प्यार की लाज, छलना, पुजामयी.
काव्य संग्रह – काँवर भर धूप, रोशनी का घोषणा पत्र, खोखले शब्दों के खिलाफ, सब कुछ निस्पन्द है, कस्तूरी यादें, विस्मय का वृन्दावन.
छत्तीसगढ़ी साहित्य – सोन के माली, सुरुज नई मरे, मतवार अउ, दूसर एकांकी जइसे कविता संग्रह शामिल हैं.
उन्होंने छत्तीसगढ़ी और हिंदी में ढेरों कविताएं, कहानियां, उपन्यास, बाल साहित्य की रचना की. जानकारी के मुताबिक 35से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई. वर्ष 2002मे उन्हें भिलाई निवास के सभागार में एक गरिमामय समारोह में तीसरे रामचन्द्र देशमुख बहुमत सम्मान से सम्मानित किया गया. उस वक्त वे काफी अस्वस्थ थे. सम्मान ग्रहण करने उनकी पत्नी इंदिरा परमार आईं थी. 26 अप्रैल 2003 में नारायण लाल परमार लंबी बीमारी के बाद सदा के लिए इस दुनिया को छोड़कर चले गए.
छत्तीसगढ़ी में लिखित उनकी यह कविता खूब चर्चित है…
तिपे चाहे भोंभरा, झन बिलमव छांव मां
जाना हे हमला ते गांव अभी दुरिहा हे।
कतको तुम रेंगाव गा
रद्दा हा नइ सिराय
कतको आवयं पडाव
पांवन जस नई थिराय
तइसे तुम जिनगी मां, मेहनत सन मीत बदव
सुपना झन देखव गा, छांव अभी दुरिहा हे।
धरती हा माता ए
धरती ला सिंगारो
नइ ये चिटको मुसकिल
हिम्मत ला झन हारो
ऊंच नीच झन करिहव धरती के बेटा तुम
मइनखे ले मइनखे के नांव अभी दुरिहा हे।