रायपुर. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में संभवतः सैकड़ों सीसीटीवी कैमरे गली, चौराहे और बाजार पर निगाहें टिकाए बैठे होंगे, लेकिन सवाल यह है कि जब कैमरे सब देख रहे हैं, तो फिर अपराध क्यों नहीं रुक रहे? और सबसे अहम कि जब वारदात हो रही होती है, तब पुलिस आखिर कहां होती है? यह सवाल अब शहर की हर सड़क, हर मोहल्ला और हर नागरिक की जुबान पर है.

राजधानी में तेजी से बढ़ती चाकूबाजी, मारपीट और गैंगवार जैसी घटनाओं ने न सिर्फ आम जनता की सुरक्षा को खतरे में डाला है, बल्कि पुलिसिंग की मौजूदा व्यवस्था और कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं. रायपुर, जो कभी अपनी साफ-सुथरी छवि और अनुशासित नागरिक व्यवस्था के लिए जाना जाता था, आज सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे अपराध के वीडियो और नाबालिगों के गिरोहों के कारण चर्चाओं में है.

दरअसल अब पुलिसिंग का अर्थ तकनीक, मोबाइल डेटा और सीसीटीवी फुटेज तक सीमित होता जा रहा है. यदि यह आधुनिकता की अनिवार्यता है, तो यह भी जरूरी है कि पुलिस की जमीनी उपस्थिति भी उतनी ही प्रभावी और दिखती हुई हो. अफसोस की बात है कि आज गश्त केवल औपचारिकता बनकर रह गई है. तेलीबांधा, डीडी नगर, गुढ़ियारी, टिकरापारा, नवा रायपुर जैसे इलाके लगातार अपराधों से जूझ रहे हैं, लेकिन स्थानीय पुलिस की उपस्थिति और तत्काल प्रतिक्रिया नगण्य है.
अक्सर देखा गया है कि वारदात के बाद पुलिस घटनास्थल पर तब पहुंचती है जब या तो आरोपी फरार हो चुके होते हैं या भीड़ पहले ही तितर-बितर हो चुकी होती है. एफआईआर दर्ज कराने की प्रक्रिया धीमी है और जांच तकनीकी उपकरणों जैसे मोबाइल लोकेशन और सीसीटीवी फुटेज तक सीमित रह जाती है, जबकि अपराधी इन तकनीकों से दो कदम आगे निकल जाते हैं.
एक समय था जब मोहल्लों में बीट प्रभारी नियमित रूप से घूमते थे, सिविल ड्रेस में पुलिसकर्मी स्थानीय गतिविधियों पर नजर रखते थे और थाने के मुखबिर तंत्र की पकड़ मजबूत होती थी. लेकिन आज सामुदायिक पुलिसिंग नाम की कोई चीज व्यवहार में दिखाई नहीं देती. न ही बीट प्रभारी आम नागरिकों से संवाद करते हैं, न ही मोहल्लों में पुलिस की नियमित मौजूदगी दिखती है.
पुलिस चौकी और मोहल्ला चौपाल जैसी अवधारणाएं अब केवल योजनाओं तक सिमट गई हैं. थानों की कार्यशैली में जनसहयोग की भावना की जगह अब दूरी और अविश्वास ने ले ली है.
दूसरी ओर, अपराध की घटनाओं पर नजर डालें तो चौंकाने वाला तथ्य सामने आता है कि 40 फीसदी से अधिक मामलों में आरोपी नाबालिग हैं. ये नाबालिग अब फेसबुक पोस्ट, रील विवाद या मामूली बहस पर चाकू निकालने से नहीं चूकते. उनके लिए हिंसा एक ‘ताकत दिखाने’ और ‘वायरल होने’ का जरिया बन गई है.
पुलिस के पास इस बढ़ती चुनौती से निपटने के लिए कोई स्पष्ट रणनीति नहीं है. पुलिसिंग को हाईटेक बनाना समय की मांग है, लेकिन यह तभी प्रभावी हो सकता है जब तकनीक के साथ मानवीय हस्तक्षेप, संवेदनशीलता और जमीनी सक्रियता भी जुड़ी हो. सिर्फ कैमरे अपराध नहीं रोकते, वो केवल रिकॉर्ड करते हैं. अपराध रोकने के लिए बीट पुलिस, रात्रि गश्त, लोकल इंटेलिजेंस नेटवर्क और स्थानीय संवाद जैसे पुराने तरीकों को फिर से सक्रिय करना होगा.
शहरी अपराध और नाबालिग गैंगों पर नियंत्रण के लिए स्पेशल टास्क फोर्स गठित किया जाना चाहिए. थाना स्तर पर गश्त, केस समाधान और नागरिक संतुष्टि पर आधारित प्रदर्शन मापदंड तय हों. हर मोहल्ले में नियुक्त बीट प्रभारी नागरिकों से सीधा संवाद बनाए रखें. हर महीने स्थानीय समुदाय के साथ खुली बैठकें (जनसंवाद) हों. सीसीटीवी का फीड सीधे थानों और मुख्यालय को मिले, ताकि त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित हो सके.
रायपुर की वर्तमान स्थिति यह बताती है कि अगर पुलिस की उपस्थिति केवल कागज़ों पर रह गई, तो अपराधी खुली छूट महसूस करेंगे. पुलिसिंग अब केवल एफआईआर, चालान और गश्त की फॉर्मेलिटी तक सीमित नहीं रह सकती. इसमें लोगों का भरोसा, सामुदायिक सहभागिता और संवाद जरूरी है.
लेकिन इस पूरी तस्वीर का एक और कड़वा सच पुलिस बल की भारी कमी भी है. राजधानी ही नहीं, राज्यभर में वर्षों से पुलिस भर्ती नहीं हुई है. कई थानों में कर्मचारी बेहद कम हैं, और अधिकारी दोहरा-तीहरा कार्यभार संभालने को मजबूर हैं. ऐसे में अपराध नियंत्रण के लिए न तो उनके पास समय है और न ही संसाधन. वहीं, पिछले एक-डेढ़ साल से राज्य में भ्रष्टाचार और घोटालों की जांच भी पुलिस के कंधों पर है, जिससे उसका ध्यान नियमित कानून-व्यवस्था से भटक गया है.
साइबर अपराध और आर्थिक अपराधों की तेजी से बढ़ती जटिलता में पुलिस बुरी तरह उलझी हुई है. ऐसे में जरूरी है कि बल की संख्या बढ़ाई जाए, नई भर्ती हो और जांच एवं सुरक्षा कार्यों को अलग-अलग इकाइयों में विभाजित किया जाए ताकि अपराध नियंत्रण में फोकस बना रहे.
राजधानी या किसी भी शहर को सुरक्षित रखने का मतलब सिर्फ कैमरे लगाना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि कैमरे देखने वालों की आंखें भी सजग और सक्रिय हों, क्योंकि जब लोग पूछने लगें कि “सीसीटीवी देख रहा है, पर पुलिस कहां है?”, तब यह सिर्फ कानून-व्यवस्था का सवाल नहीं होता, यह लोकतंत्र और विश्वास के संकट की शुरुआत होती है.
अब समय आ गया है कि रायपुर में पुलिसिंग को केवल तकनीकी नहीं, बल्कि संवेदनशील, जवाबदेह और जनोन्मुखी बनाया जाए, ताकि राजधानी फिर से भरोसे की मिसाल बन सके.
लेखक- प्रिंट-टीवी मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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