Chhath Puja 2025: छठ पूजा को सूर्यषष्ठी के नाम से भी जाना जाता है और भारत के सबसे महत्वपूर्ण और श्रद्धापूर्ण लोक पर्वों में से एक है. मुख्य रूप से यह व्रत बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बड़े ही धूमधाम और आस्था के साथ मनाया जाता है. उगते सूरज की पूजा तो हर कोई करता है, लेकिन छठ महापर्व में डूबते सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है, जो इसे बाकी त्योहारों से अलग बनाता है. इस पर्व की एक और आकर्षक विशेषता है बांस से बने सूप और दउरा (टोकरी) का इस्तेमाल. 

अर्घ्य देने के लिए व्रती महिलाएँ बांस के सूप का इस्तेमाल करती हैं. साथ ही, घाट पर जो पूजा का सामान ले जाया जाता है वह भी बांस के दउरा में सजाकर ले जाते हैं. बांस के सूप और दउरा केवल पारंपरिक बर्तन नहीं हैं, बल्कि इनके इस्तेमाल के पीछे एक गहरा आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक महत्व छिपा है. आइए इसके बारे में विस्तार से जानते हैं. 

आध्यात्मिक महत्व

छठ पूजा पूरी तरह प्रकृति उपासना पर आधारित पर्व है- सूर्य (ऊर्जा), जल (जीवन), और धरती (अन्नदाता) की आराधना इसमें प्रमुख है.बांस एक प्राकृतिक, जीवित और शुद्ध पदार्थ है, जो प्रकृति के इस चक्र का प्रतीक है.

बांस को पवित्र और शुभ माना जाता है क्योंकि यह तेजी से बढ़ता है, लेकिन कभी सड़ता या दूषित नहीं होता.व्रती जब बांस के सूप या दउरा में अर्घ्य सामग्री रखती हैं, तो यह प्रकृति के शुद्ध माध्यम से ईश्वर को अर्पण करने का प्रतीक होता है.

सांस्कृतिक महत्व

बांस सदियों से भारतीय ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा रहा है- हर शुभ कार्य में बांस का प्रयोग होता है (जैसे मंडप, पिठार, या टोकरी).छठ पर्व सामूहिकता और लोकसंस्कृति का प्रतीक है; बांस के सूप-दउरा का उपयोग लोककला और परंपरा की निरंतरता बनाए रखता है.यह “मिट्टी से जुड़ी संस्कृति” को दर्शाता है- जिसमें सादगी, आत्मनिर्भरता और प्रकृति संग जीवन का दर्शन है.

वैज्ञानिक दृष्टि से

बांस बायोडिग्रेडेबल और पर्यावरण अनुकूल होता है- इससे प्रकृति को कोई हानि नहीं होती.बांस में प्राकृतिक जीवाणुरोधी (antibacterial) गुण होते हैं, इसलिए यह पूजा सामग्री को शुद्ध रखता है.छठ पूजा के दौरान बांस के सूप-दउरा का उपयोग स्वच्छता, पारिस्थितिक संतुलन और टिकाऊ जीवनशैली का प्रतीक भी है.