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सत्यपाल राजपूत, रायपुर. पांच राज्यों में टीबी के उन्मूलन की प्रगति की समीक्षा करने और भविष्य की रणनीति बनाने के उद्देश्य से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान रायपुर में दो दिवसीय पूर्वी जोन की जोनल टास्क फोर्स की कार्यशाला प्रारंभ हुई. इस अवसर पर पांचों राज्यों में प्रगति पर संतोष व्यक्त करते हुए वर्ष 2025 तक टीबी के उन्मूलन की अंतिम रणनीति बनाने का आह्वान किया. छत्तीसगढ़ ने स्वयं के लिए और अधिक महत्वकांक्षी लक्ष्य रखते हुए वर्ष 2023 तक राज्य से टीबी मिटाने का संकल्प व्यक्त किया है.
कार्यशाला का उद्घाटन करते हुए पद्मश्री और देशभर में टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के प्रणेता प्रो. दिगंबर बेहरा ने कहा कि टीबी के उन्मूलन में इन पांचों राज्यों के मेडिकल कालेजों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. उन्होंने कहा कि गत वर्ष टीबी के लगभग 24 लाख मामले प्रकाश में आए जबकि लगभग चार लाख अभी भी इलाज के लिए नहीं आए हैं. इन रोगियों की पहचान और इलाज भारतीय चिकित्सा प्रणाली के लिए एक महत्वपूर्ण सफलता है. यदि चिकित्सक थोड़ी और मेहनत करें तो भारत से टीबी का उन्मूलन संभव है. उन्होंने फेफड़ों के अलावा अन्य टीबी ( कुल रोगियों का 20 प्रतिशत) और दवारोधी टीबी (कुल रोगियों का छह प्रतिशत) को एक चुनौती बताते हुए इसके इलाज के लिए मेडिकल कालेजों की मदद लेने का आह्वान किया.
छत्तीसगढ़ राज्य की स्वास्थ्य और परिवार कल्याण सचिव निहारिका बारिक सिंह ने कहा कि टीबी का आसान इलाज संभव है मगर फिर भी यह एक चुनौती बनी हुई है. देशभर में लगभग 4.80 लाख रोगियों की मृत्य टीबी से होती. इसे देखते हुए छत्तीसगढ़ ने स्वयं को वर्ष 2023 तक टीबी मुक्त बनाने का महत्वकांक्षी लक्ष्य रखा है. उन्होंने टीबी उन्मूलन में जुटे चिकित्सकों का आह्वान किया कि वे इस लक्ष्य को वर्षवार तय करें जिसे आसानी से प्राप्त किया जा सके.
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की संयुक्त सचिव डॉ. प्रियंका शुक्ला ने छत्तीसगढ़ की टीबी उन्मूलन में की गई पहल की प्रशंसा करते हुए कहा कि टीबी के मरीजों को सामाजिक स्तर पर मिलने वाली उलाहना से निजात दिलाने के लिए पहल करने की आवश्यकता है. उन्होंने एम्स को टीबी के इलाज के लिए सेंटर ऑफ एक्सीलेंस बनाने और यहां दवारोधी टीबी मरीजों के लिए पृथक वार्ड एवं लैब बनाने का भी सुझाव दिया.
एम्स रायपुर के निदेशक प्रो. (डॉ.) नितिन एम. नागरकर ने कहा कि एम्स छत्तीसगढ़ स्वास्थ्य विभाग के साथ मिलकर टीबी, मलेरिया और कुपोषण की चुनौती से मुकाबला कर रहा है. उन्होंने कहा कि मानव सभ्यता में प्राचीनकाल से टीबी के लक्षण मिले हैं. ऐसे में इस लंबे समय से मौजूद बीमारी का उन्मलून पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप, राज्य और केंद्र के परस्पर सहयोग और चिकित्सकों की मदद से किया जा सकता है.
डॉ. रघुराम राव, डीएडीजी, स्वास्थ्य निदेशक महानिदेशालय ने कहा कि भारत में वर्ष 2018 में 26.9 लाख टीबी मरीजों की पहचान की गई जो प्रति लाख 199 है और कुल जनसंख्या का लगभग 0.2 प्रतिशत है. उन्होंने कहा कि आसाम, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल सहित नौ राज्यों में कुल टीबी के 65 प्रतिशत रोगी हैं. इसे खत्म करने के लिए मेडिकल कालेजों का सहयोग आवश्यक है. कार्यशाला में स्वास्थ्य शिक्षा निदेशक डॉ. एस.एल. एडिल, आयोजन सचिव डॉ. अजॉय कुमार बेहरा, उप-निदेशक (प्रशासन) नीरेश शर्मा, चिकित्सा अधीक्षक डॉ. करन पीपरे, डॉ. उज्जवला गायकवाड़ और डॉ. एस.के. साही उपस्थित थे..डॉ. बेहरा ने बताया कि कार्यशाला में पहले दिन सभी राज्यों की प्रगति की समीक्षा की गई और टीबी के इलाज की नई पद्धतियों के बारे में चिकित्सकों को बताया गया.