ज़िन्दगी धूप छाँव है, ऐसा ही लग रहा था कार में बैठे हुए। छोटी सी काली सड़क पे चलते हुए, सड़क के किनारे उन उँचे उँचे साल के घने पेड़ों से धूप छन- छन के आ रही थी। कभी धूप कभी छाँव- इस ख़याल ने दिमाग़ में आकर, जैसे आँखों से सहमति जता दी। थक कर, ऊब कर, और शायद, फ़्रस्ट्रेशन में, मैनें लम्बी छुट्टी ली। सोचा कि घूम के आयेंगे कहीं। उत्तराखण्ड चलते हैं, प्राकृतिक नज़ारे, आध्यात्मिक माहौल। अडवेंचर भी है- रिवर राफ्टिंग, पैरासेलिंग, शायद ट्रेकिंग भी। फिर सोचा कि अभी अपना घर ही नहीं देखा है मैनें ठीक से, कहाँ देखा है मैने सारा छत्तीसगढ़?

कार से उतरकर जब उस घाटी की ठंडी हवा ने बदन को छुआ, स्वयमेव रोमांचित हो उठा मैं। घाटी की ख़ूबसूरती और रिसॉर्ट के वूडेन कॉटिज का तिलस्मी आग़ोश महसूस करके तो एक अपराध बोध सा हो गया कि बाहर की दुनिया देखने, सोचने के चक्कर में अपने अंदर ही ख़ालीपन भर दिया मैने, अपना घर ही न देख पाया।

लेखक- आईपीएस, मयंक श्रीवास्तव

 

जब सुबह की सोने जैसी धूप ने बड़ी नज़ाकत के साथ चूमा, तो लगा कि ऊफ़, ये मौसम, यहाँ कवर्धा में, चिल्फी में। मादक है ये ठंड। पीड़ाघाट के वॉचटावर की दिलकश ऊँचाई से मैकाल पर्वत श्रृंखला का नज़ारा, क्या पवित्र प्रकृति का कौमार्य, क्या हरीतिमा! सुन्दर, मनमोहक! रानीधारा (रानी दहरा) झरना, मीठा शुद्ध साफ़ पानी। पानी सिर्फ़ तन को ही जीवन नहीं देता, आंखों को भी देता है। इन्सान की सुन्दरता की तलब को कितने तरीक़ों से पूरा करती है ये पानी और पहाड़ की जुगलबन्दी। भोरमदेव अभयारण्य में भी कुछ छोटे झरने हैं, बच्चों जैसे ख़ूबसूरत। वन्यप्राणी और प्रकृति तो जैसे एक दूसरे के साथ खेलते हुए खिलाड़ी हैं, एक के बिना दूसरा अधूरा। कितना हसीन बना देता है जंगली वीराने को, ये वन्यप्राणियों का सजीव वैविध्य। जब जंगलों और पहाड़ों में गलबँहिया हो तो ऐसे रस्ते निकलते हैं जहाँ पैदल घूमना, मानव के रोमांच की आकांक्षा को बड़े वैज्ञानिक ढंग से तृप्त करता है।

एक ऐसी जगह भी है, जहाँ गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी फ़ेल होता दिखता है। गाड़ी नीचे से उपर चलने लगती है। दरुअसल ये एक तरह का ऑप्टिकल भ्रम है, इसे “गुरुत्व पर्वत” ( gravity hill) कहते हैं, जहाँ पे नीचे जाने वाली मामूली ढलान, अगल बगल के ज़मीन के विशेष ले आउट की वजह से, उपर जाने वाली ढलान लगती है। छत्तीसगढ़ में सरगुजा के मैनपाट पहाड़ी के उल्टापानी स्थान के अतिरिक्त ये दूसरी जगह है कवर्धा में, देवंपतपड़ (या पंडरीया) पहाड़ी, जहाँ ये चमत्कार दिखता है। भ्रम ही सही, है मज़ेदार ये। अध्यात्म की यदि कमी लगे तो भोरमदेव मन्दिर आपको भक्तिभाव से अभिभूत करने के लिये है ही। 11वीं शताब्दी का बना ये मन्दिर एक तरह से भारत में विभिन्न वर्गों के आत्मसात्करण की प्रवृत्ति का उदाहरण भी है।

इतना कुछ है इस छोटी सी जगह में, पूरे प्रदेश में कितना होगा? अब भटकने का नहीं, लक्ष्य के साथ यायावर बनने का अवसर मिला है, धूप से छाँव में आने का अवसर।
हर तरफ़ धूप का नगर मुझमें
कट गिरा आखिरी शजर मुझमें
छाँव छाँव पुकारता जाये
कौन करने लगा सफ़र मुझमें – ‘जाज़िल’
(शजर=पेड़)
आशा के साथ, क्रमशः