रायपुर. बहुत से लोग होते हैं, जिनके जीवन में गांधी के आदर्श दिखते हैं. लेकिन कम ही लोग होते हैं जिनके जीवन के साथ कर्म और संघर्ष में गांधी का प्रभाव दिखता है. शैल दीदी के नाम से जानी जाने वाली शैल बहन उनमें से एक है.

शैल बहन के नाम से जानी जाने वाली शैल चौहान ने अपना पूरा जीवन गांधी और बिनोवा के मूल्यों और आदर्शों को स्थापित करने और इनके प्रचार-प्रसार में समर्पित कर दिया. पिछले 50 सालों से वे पनवार, चारामा, दुर्ग और बेमेतरा के आश्रमों में तपस्वी जीवन जी रही हैं.

बस्तर के नक्सल पीड़ित बच्चे उन्हें यवा अर्थात मां कहकर संबोधित करते हैं. दोरली बोली में मां को यवा कहते हैं. वे बेमेतरा आने से पहले दुर्ग में नक्सल पीड़ित बच्चों की देखरेख करती थीं. उनकी परवरिश का असर था कि नक्सल प्रभावित बच्चे हर साल अपने स्कूलों में टॉप करते थे.

शैल दीदी का पूरा जीवन गांधीमय रहा है.उन्होंने गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी बिनोवा भावे के आश्रम में अपने जीवन का लंबा अर्सा बीता दिया. वे पवनार आश्रम में 35 साल रहीं. उनके जीवन में सेवा और समर्पण का भाव इसी दौरान मज़बूत हुआ. इस दौरान बिनोवा के छोटे भाई शिवाजी भावे की निज सचिव बनकर उनके सानिध्य में काम किया. उनका अंतिम संस्कार भी शैल दीदी ने किया.

शैल दीदी कहती हैं –‘’विनोबा गांधीजी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे, विनोबा जी को जानना मतलब गांधीजी को जानना होता है. गांधी को मैंने समझने की कोशिश की. मैं सेवाग्राम में विनोबा जी की छोटे भाई शिवाजी भावे की प्राइवेट सेक्रेटरी थी. मुझे कभी फर्क महसूस नहीं हुआ क्योंकि गांधी और विनोबा तो एक ही है. विनोबा भावे के छोटे भाई गांधी के विचारों से ही ओत प्रोत थे, आबा ने उन्हे एक चित्र के माध्यम से तकली चलाने की सीख दी.’’

शैल दीदी मुख्य रुप से बस्तर की बेटी हैं. उन्होंने बस्तर के तेलीमारंगा में पढ़ाई करने के बाद लखनऊ में कालेज की पढ़ाई की. शैल दीदी का कहना है कि वे देश की पहली महिला आईपीएस बनना चाहती थीं. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था और वे गांधी और बिनोवा के रास्ते पर आ गईं.

शैल बहन ने सबसे पहले 1977 में धरमपाल सैनी का कस्तूरबा आश्रम बनवाया. उसके बाद धरमपाल सैनी के सुझाव पर बिनोवा भावे के पवनार आश्रम में चली गईं. ने गांधी आदर्शों से प्रेरणा लेकर मनोहर शिशु केंद्र खोला. 20 वर्ष तक बस्तर में आदिवासी महिलाओं में शिक्षा का प्रचार प्रसार गांधीवादी धरमजीत सैनी के सानिध्य में किया. उन्होंने छत्तीसगढ़ में बिनोवा जी के प्रवचनों का संकलन किया. उन्होंने बिनोवा के भाई शिवाजी भावे पर संस्मरण लिखा.

यहां से लौटकर वे फिर बस्तर आईं. चारामा में उन्होंने जड़ी बूटियों पर काम शुरु किया. इस बीच नक्सल प्रभावित बच्चे के पालन पोषण का जिम्मा उन्हें मिला. उन्हें लेकर वे पहले रायपुर फिर दुर्ग आ गईं. यहां कोरोना शुरु होने से पहले तक करीब 50 बच्चों को पढ़ाती रहीं. इसके बाद शैल दीदी ने बेमेतरा में गांधी आश्रम शुरु किया. उन्होंने पूर्व सांसद केयूर भूषण की दी हुई ज़मीन पर मूलत: जड़ी-बूटियों पर अनुसंधान शुरु किया. वे चाहती हैं कि ये नेचर केयर सेंटर बने.

शैल कहती हैं – ‘’मैं वन औषधि का संवर्धन और एक प्राकृतिक चिकित्सालय यहां पर जांता गांव में बनाना चाहती हूं इसलिए मैं 70 साल की उम्र में यहां रहने आई हूं, गांव वाले अपना इलाज मिट्टी, पानी और हवा से करें, यह गांधी जी का संदेश था कि हम जितने ज्यादा प्रकृति से जुड़ेंगे उतनी ज्यादा जल्दी स्वस्थ भी होंगे, और कोरोना काल में सभी प्रकृति से जुड़ने के लिए तैयार बैठे हैं.’’

शैल बहन अब यहां गांधी की प्रतिमा लगवा रही हैं ताकि गांधी इस आश्रम में आने वाले हर किसी के साथ जुड़े रहें.