लोहंडीगुड़ा से रुपेश गुप्ता की रिपोर्ट. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और छत्तीसगढ़ के नए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लोहंडीगुड़ा के 1707 किसानों को ज़मीन का अधिकार लौटाने के बाद सभा में किसानों के चेहरे पर खुशी दिख रही थी. लेकिन ये जानना भी ज़रुरी था कि ये मुस्कुराहट कांकेर की महिला किसान चंद्रमणि कौशिक की तरह अधिकारियों द्वारा प्रायोजित है या फिर ज़मीन वापिस मिलने से किसानों के चेहरे खिल उठे हैं.
हमारी टीम लोहंडीगुड़ा गांव के किनारे उस जगह पहुंची, जहां पूर्ववर्ती रमन सिंह की सरकार ने दस गांव की ज़मीन अधिग्रहित कराके टाटा को प्लांट लगाने के लिए सौंपा था. हम लोहंडीगुड़ा गांव से तालाब के किनारे बना उबड़-खाबड़ रास्ते प्लांट वाली जगह पहुंचे थे. जहां हर खेत में धान के पौधों के कटाई के बाद बचे हुए हिस्से थे. जिससे पता चल रहा था कि खेती इन खेतों में होती आई है. यहां हमारी मुलाकात दो किसानों से हुई. एक रामचंद्र और दूसरे प्यारेलाल. रामचंद्र अपने छोटे-छोटे मेड़ तोड़वाकर उसे बड़ा बनवा रहे थे. अब तक यहां जुताई बैलों से होती थी. वे अब ट्रैक्टर से जुताई के लायक खेत को बनवा रहे थे.
रामंचद्र ने बताया कि इतने सालों तक सही से खेती नहीं हो रही थी. खेत खाली थे तो दूसरों को किराए पर दे दिया करते थे. अब ज़मीन पर हक़ फिर से मिल गया तो बोर कराकर साल में कई फसल लेंगे. सरकारी योजनाओं का फायदा लेकर खुद ही खेती करेंगे. टमाटर- मिर्ची लगाएंगे. पहले धान लगाते थे.
वहीं पर दूसरे किसान 80 साल के प्यारेलाल मौजूद थे. जो लंबे अर्से बाद अपने खेत पहुंचे थे. उनकी आंखें नम थीं. प्यारेलाल का कहना था कि जब टाटा ने ज़मीन ले ली तो उन्होंने खेत जाना बंद कर दिया. यहां आते ही मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे. जब हमने कहा कि आंखे तो आज भी आपकी नम दिख रही हैं तो मुस्कुराके बोले- ये खुशी के आंसू हैं.
प्यारेलाल ने तफ्सील से हमसे बात की. उन्होंने बताया कि पहले यहीं किसानी किया करते थे. लेकिन अधिग्रहण के बाद से कुछ नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने कहा- ‘जमीन मिलने के बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरी मां कहीं चली गई थी अब वो मुझे फिर से वापस मिल गई है.‘
उन्होंने ज़मीन वापिस करने के लिए राहुल गांधी और भूपेश बघेल को आशीर्वाद दिया. उन्होंने कहा कि दोनों का राज बढ़े. हमने पूछा कि क्या वे धुरागांव की सभा में राहुल गांधी से मिले. उनका जवाब ना में था. उन्होंने कहा कि वे स्टेज तक पहुंच नहीं पाए, राहुल गांधीी को दूर से ही देख पाए.
प्यारेलाल ने बताया कि जब टाटा के लिए ज़मीन जब उनसे ली गई तो बहुत बुरा लगा. लेकिन पूर्व सरकार के आगे मजबूर थे. प्यारेलाल की आंखें फिर से नम हो गई. नम आंखों से उन्होंने कहा- ‘वो सरकार लेने वाली सरकार थी, अब नई सरकार देने वाली सरकार है’.
जब हमने कहा कि ज़मीन सरकार ने आपसे ली तो आपको पैसे भी दिए गए. उन्होंने कहा कि रुपया बासी भात की तरह होता है, जिसे फेंकना ही पड़ता है. प्यारेलाल ने कहा कि अब ये ज़मीन मेरे नाती-पोतों के लिए रहेगा. मेरे वंशज इसका इस्तेमाल करेंगे. अगर ज़मीन नहीं मिलती तो वे क्या करते. पैसा तो खत्म ही हो जाता. हमने फिर पूछा कि प्लांट लगने से आपके बच्चों को रोज़गार भी मिलता. तो उन्होंने तपाक से कहा. कहां लगता रोजगार किसी और को मिलता. हमें कुछ नहीं मिलने वाला था. प्यारेलाल की टाटा के लिए करीब साढ़े सोलह एकड़ ज़मीन एक्वायर की गई थी. उन्हें हर एकड़ के 1 लाख 48 हज़ार रुपये मिले.
टाटा के लिए यहां राज्य सरकार ने 2007 से ज़मीन अधिग्रहित करना शुरु किया. कई कारणों से टाटा ने दस साल बाद यहां प्रोजेक्ट नहीं लगाने का फैसला किया. इसमें एक प्रमुख कारण दंतेवाड़ा में इनकी मशीनें नक्सलियों द्वारा जलाया जाना बताया जाता है. इसके अलावा अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति खराब होना, स्टील के दामों में कमी भी टाटा के फैसले में शामिल रही.
वहीं, युवा किसान रामचंद्र जोश से बताते हैं कि टाटा यहां ज़मीन पर कब्जा नहीं कर पाया. हमने हर साल अधिया में ही सही, लेकिन खेती करवाना जारी रखा. जिससे टाटा यहां से भाग गया. अब इस जमीन पर बोर कराकर दो बार फसल लगाएंगे. उन्होंने बताया कि दस गांवों की ज़मीन अधिग्रहित की गई थी लेकिन ज़्यादातर लोग इस अधिग्रहण के खिलाफ थे. लेकिन लोगों के विरोध के बीच सरकार के अधिकारी एक दिन आए. उन्होंने 1.48 हज़ार के भाव से चेक पकड़ाते हुए बताया कि आपके खेत पर टाटा की फैक्ट्री लगेगी. हम जमीन देना नहीं चाहते थे लेकिन लोगों द्वारा कहा जाता था कि पैसा नहीं लोगो, तो पैसा चला जाएगा और ज़मीन भी.
रामचंद्र ने बताया जब यहां के किसानों ने इन पैसों से जब दूसरी जगह ज़मीन लेने की कोशिश की तो नहीं ले पाए. दूसरी जगह पर ज़मीन का रेट 10 लाख से 25 लाख हो गया. इसके बाद उनके गांव के ज़्यादातर लोगों ने दुकान खोलकर, मकान बनवाकर ये पैसे लगा दिए. लोहंडागुड़ा गांव में इसीलिए हर चीज़ की दुकान है. रामचंद्र ने कहा कि रोज़गार हमेशा फैक्ट्रियों में देखा जाता है. लेकिन ज़मीन से पुरखों का जुड़ाव होता है.