आशुतोष तिवारी, जगदलपुर। कभी-कभी ज़िंदगी ऐसी कहानियाँ लिखती है, जिन्हें सुनकर दिल कांप जाता है. जहाँ उम्र बीत जाती है, पर बचपन कभी शुरू ही नहीं होता. बकावंड की लिसा छह साल की थी, जब दुनिया की आवाजें उससे छीन ली गईं और बीस साल बाद जब वो दुनिया के दरवाजे पर लौटी, तो उसके पास था बचपन की जगह बस अंधेरा.

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ये कहानी है लिसा की एक ऐसी जिंदगी की, जिसे इंसानी डर ने कैद किया और हालातों ने खामोश कर दिया. बीस साल तक बंद कमरा ही उसकी दुनिया रहा. दरवाजे पर रखा खाना ही उसकी बातचीत और अंधेरा उसकी पहचान. लेकिन अब पहली बार, उस अंधेरे को रोशनी मिली है. पहली बार उस खामोशी में किसी ने उसका नाम लिया है. पहली बार उसे अहसास हुआ है कि वह अकेली नहीं है.

दरअसल, लिसा को किसी सज़ा की वजह से नहीं बल्कि डर की वजह से बंद किया गया था. उस समय बकावंड में ही रहने वाला एक बदमाश मासूम पर बुरी नजर रखता था. पिता गरीब थे, मां गुजर चुकी थी, और घर में बचाव का कोई साधन नहीं था. बाप के दिल में बस एक ही डर था, कहीं मेरी बच्ची उस दरिंदे का शिकार न बन जाए. उस डर ने पिता को मजबूर कर दिया और जिस बेटी को बचाने की कोशिश थी, वो बचपन ही कैद हो गया.

6 साल की उम्र में लिया गया वो निर्णय, अगले 20 सालों तक लिसा की दुनिया बन गया. बीस साल बाद जब समाज कल्याण विभाग की टीम पहुँची, तो सामने थी एक लड़की जो अब दुनिया को नहीं देख सकती. क्योंकि बचपन से अंधेरे ने उसकी रोशनी निगल ली. अब लिसा ‘घरौंदा आश्रम’ में है जहाँ देखभाल, इलाज और इंसानियत उसका इंतज़ार कर रही है. धीरे-धीरे वह फिर सीख रही है मुस्कुराना, चलना, बोलना, और सबसे ज़रूरी जीना.