लखनऊ. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रदेश के डीजीपी को निर्देश को दिया है कि थानों में एफआईआर लिखते वक्त सामान्य व सरसरी तौर पर एससी-एसटी एक्ट की धाराएं न लगाई जाएं। इन धाराओं में मुकदमा तभी दर्ज किया जाए जब तहरीर में लिखित तथ्यों से एससी-एसटी एक्ट के तहत अपराध पूर्ण रूप से बन रहा हो। कोर्ट ने डीजीपी को सभी जिलों के पुलिस अधिकारियों को इस आदेश का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक निर्देश जारी करने को कहा है।
यह आदेश न्यायमूर्ति बालकृष्ण नारायण और न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह की खंडपीठ ने मुजफ्फरनगर जिले के चरथावल थाने में दर्ज मुकदमे की एफआईआर को निरस्त करने के लिए नीरज मिश्रा व तीन अन्य की याचिका पर सुनवाई के बाद दिया।
कोर्ट ने राज्य सरकार को इस मामले में जवाब दाखिल करने का चार हफ्ते का समय दिया है। साथ ही जिसने मुकदमा दर्ज कराया था, उसे अपना जवाब दाखिल करने के लिए कहा है। मामले की सुनवाई की तिथि 25 जनवरी नियत की गई है। तब तक के लिए मुकदमे की अग्रिम कार्रवाई और याचियों की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है।
9 दिसम्बर 2018 को मुजफ्फरनगर जिले के चरथावल थाने में आईपीसी की धारा 323, 506, 354 ख एवं एससी-एसटी एक्ट के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज की गई थी। इस मामले में नीरज मिश्रा व तीन अन्य ने हाईकोर्ट में प्राथमिकी रद्द करने के लिए याचिका दाखिल की थी। याचियों का कहना है कि आईपीसी की धाराओं के तहत अपराध में सात साल से अधिक की सजा नहीं हो सकती। एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1) व 3(2)(1) के तहत प्राथमिकी के आरोपों से कोई अपराध बनता ही नहीं है। इस एक्ट के तहत अपराध का कोई आरोप ही नहीं है। ऐसे में उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने याचियों की ओर से प्रस्तुत तर्क के आधार पर मामले को विचारणीय माना है और याचिका पर जवाब तलब किया है।