सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि गंभीर अपराधों से जुड़े मामलों में अग्रिम जमानत को मशीनी तरीके से नहीं दिया जाना चाहिए। शीर्ष अदालत की तीन जजों की पीठ ने हत्या के एक केस की सुनवाई करते हुए चार आरोपितों को दी गई अग्रिम जमानत के आदेश को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की। कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए हाई कोर्ट के निर्णय की आलोचना भी की।
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पटना हाई कोर्ट के फैसले की आलोचना की
शीर्ष अदालत की तीन जजों की पीठ जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ, संजय करोल और संदीप मेहता शामिल थे उन्होंने अपने एक मई के आदेश में पटना हाई कोर्ट के फैसले की आलोचनाक करते हुए कहा, “पटना हाई कोर्ट का आदेश गंभीर अपराधों के तहत आइपीसी की धारा 302 और 307 में अग्रिम जमानत देने के लिए कोई तर्क नहीं प्रस्तुत करता है। यह आदेश संक्षिप्त और न्यायिक विश्लेषण की कमी से भरा है। गंभीर अपराधों के मामलों में अग्रिम जमानत का इस तरह मशीनी तरीके से दिया जाना उचित नहीं है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।”
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सात आरोपितों के खिलाफ एफआइआर दर्ज
यह आदेश पीड़ित के बेटे द्वारा दायर की गई याचिका पर आया, जिसमें आरोपितों को अग्रिम जमानत देने के आदेश को चुनौती दी गई थी। पीडि़त पर 2023 में पड़ोसियों के बीच विवाद के दौरान लोहे की रॉड और डंडों से हमला किया गया था। सिर में चोट लगने के कारण, उन्होंने उसी दिन दम तोड़ दिया और अपीलकर्ता के बयान के आधार पर सात आरोपितों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई।
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आरोपितों को आठ हफ्ते के अंदर आत्मसमर्पण करने का निर्देश
एफआइआर और संबंधित सामग्री के सामान्य अध्ययन पर कोर्ट ने देखा कि अपीलकर्ता के पिता पर अपीलकर्ता की उपस्थिति में हमला किया गया और उनकी हत्या कर दी गई। शीर्ष अदालत ने कहा, ”यह घटना एक मार्ग में रुकावट को लेकर विवाद से उत्पन्न हुई प्रतीत होती है। एफआइआर में उल्लिखित आरोपितों की विशिष्ट भूमिकाएं यह दर्शाती हैं कि वे तब भी हमला करते रहे थे जब मर कर जमीन पर गिर चुका था।”
कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट ने ”स्पष्ट रूप से” मामले में आरोपों की गंभीरता और प्रकृति को समझने में विफलता दिखाई। इसलिए, आरोपितों को आठ हफ्ते के अंदर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया गया।
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