आज 6 जनवरी है. आज से ठीक 135 वर्ष पूर्व 6 जनवरी 1885 को हमने आधुनिक हिंदी के जनक कहलाने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिशचंद्र को सिर्फ़ 35 वर्ष की अल्प आयु में खो दिया था. वही हरिशचंद्र जिन्हें हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग कहा गया. आज उन्हें हम पुण्य स्मरण कर रहे हैं.

भारतेंदु हरिशचंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को काशी(बनारस) में हुआ था. उनके पिता गोपालचंद्र एक अच्छि कवि थे. पिता के कवि होने का असर पुत्र हरिशचंद्र में पड़ा और बचपन से ही भारतेंदु कविता लिखने लग गए थे. विभिन्न माध्यमों में संग्रहित उनके जीवन परिचय से पता चलता है कि उन्होंने महज 5 वर्ष की आयु में ही पहली कविता लिख दी थी. हालांकि काव्य लेखन की विधिवत् शुरुआत 15 वर्ष के बाद ही प्रारंभ हुआ.

भारतेंदु का पारिवारिक जीवन अच्छा नहीं रहा. बचपन में वे माता-पिता के सुख से वंचित हो गए थे. जव वे 5 साल के थे तो माता की मृत्यु हो गई थी. वहीं 10 वर्ष में पिता साथ छोड़ गए थे. माता-पिता को खोने के बाद भारतेंदु अकेले हो गए थे. उनका मन पढ़ाई में नहीं लगता था.  क्वींस कॉलेज बनारस में प्रवेश लिया, तीन-चार वर्षों तक कॉलेज आते-जाते रहे, लेकिन यहाँ मन लगा ही नहीं. हालांकि स्मरण शक्ति तेज होने की वजह से वे परीक्षाओं में पास होते रहे. उन्होने पढ़ाई के दौरान ही अँग्रेजी, हसहित संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू भाषाएं सीख ली थी.

पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही भारतेन्दु ने साहित्य सेवा प्रारम्भ कर दी थी. अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका निकाली, जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं. वे बीस वर्ष की अवस्था में ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित हुए. उन्होंने 1868 में ‘कविवचनसुधा’, 1873 में ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए ‘बाला बोधिनी’ नामक पत्रिकाएँ निकालीं. साथ ही उनके समांतर साहित्यिक संस्थाएँ भी खड़ी कीं. वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने ‘तदीय समाज’ की स्थापना की थी. राजभक्ति प्रकट करते हुए भी, अपनी देशभक्ति की भावना के कारण उन्हें अंग्रेजी हुकूमत का कोपभाजन बनना पड़ा. उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें ‘भारतेंदु'(भारत का चंद्रमा) की उपाधि प्रदान की. (विकिपीडिया)

उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने का महान काम किया. आधुनिक हिंदी का उन्हें जनक कहा जाता है. उन्होंने महज 35 वर्ष की अल्प आयु में हिंदी में कविता, उपन्यास, नाटक, निबंध जैसे विधाओं पर ढेरों रचनाएं की. यही वहज है कि सन् 1857 से 1900 तक के काल को उनके नाम भारतेंदु युग से जाना जाता है.

मौलिक नाटक

  • वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति (१८७३ई., प्रहसन)
  • सत्य हरिश्चन्द्र (१८७५,नाटक)
  • श्री चंद्रावली (१८७६, नाटिका)
  • विषस्य विषमौषधम् (१८७६, भाण)
  • भारत दुर्दशा (१८८०, ब्रजरत्नदास के अनुसार १८७६, नाट्य रासक)
  • नीलदेवी (१८८१, ऐतिहासिक गीति रूपक)
  • अंधेर नगरी (१८८१, प्रहसन)
  • प्रेमजोगिनी (१८७५, प्रथम अंक में चार गर्भांक, नाटिका)
  • सती प्रताप (१८८३,अपूर्ण, केवल चार दृश्य, गीतिरूपक, बाबू राधाकृष्णदास ने पूर्ण किया)

अनूदित नाट्य रचनाएँ

  • विद्यासुन्दर (१८६८,नाटक, संस्कृत ‘चौरपंचाशिका’ के यतीन्द्रमोहन ठाकुर कृत बँगला संस्करण का हिंदी अनुवाद)
  • पाखण्ड विडम्बन (कृष्ण मिश्र कृत ‘प्रबोधचंद्रोदय’ नाटक के तृतीय अंक का अनुवाद)
  • धनंजय विजय (१८७३, व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद)
  • कर्पूर मंजरी (१८७५, सट्टक, राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद)
  • भारत जननी (१८७७,नाट्यगीत, बंगला की ‘भारतमाता’के हिंदी अनुवाद पर आधारित)
  • मुद्राराक्षस (१८७८, विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद)
  • दुर्लभ बंधु (१८८०, शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद)

निबंध संग्रह

  • नाटक
  • कालचक्र (जर्नल)
  • लेवी प्राण लेवी
  • भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?
  • कश्मीर कुसुम
  • जातीय संगीत
  • संगीत सार
  • हिंदी भाषा
  • स्वर्ग में विचार सभा

काव्यकृतियां

  • भक्तसर्वस्व (1870)
  • प्रेममालिका (१८७१),
  • प्रेम माधुरी (१८७५),
  • प्रेम-तरंग (१८७७),
  • उत्तरार्द्ध भक्तमाल (१८७६-७७),
  • प्रेम-प्रलाप (१८७७),
  • होली (१८७९),
  • मधु मुकुल (१८८१),
  • राग-संग्रह (१८८०),
  • वर्षा-विनोद (१८८०),
  • विनय प्रेम पचासा (१८८१),
  • फूलों का गुच्छा- खड़ीबोली काव्य (१८८२)
  • प्रेम फुलवारी (१८८३)
  • कृष्णचरित्र (१८८३)
  • दानलीला
  • तन्मय लीला
  • नये ज़माने की मुकरी
  • सुमनांजलि
  • बन्दर सभा (हास्य व्यंग)
  • बकरी विलाप (हास्य व्यंग)

कहानी

अद्भुत अपूर्व स्वप्न

यात्रा वृत्तान्त

  • सरयूपार की यात्रा
  • लखनऊ

आत्मकथा

एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती

उपन्यास

  • पूर्णप्रकाश
  • चन्द्रप्रभा