जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया से मैं पहली बार कब मिला ये तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि शायद एक दशक पहले मुलाकात हुई होगी. तब मैं रायपुर में बतौर पत्रकार काम करना शुरू कर चुका था. वैसे तो उन्हें देखने और सुनने का अवसर स्कूल के दिनों में काफी पहले कई कार्यक्रमों में मिल चुका था, लेकिन उनसे मिलने का असवर पत्रकारिता में आने के बाद ही मिला. मैं बचपन से लक्ष्मण मस्तुरिया के गीतों को रेडियो और ऑडियो कैसेट के माध्यम से सुनते आया था. छत्तीसगढ़ की ग्रामीण संस्कृति को जिस तरह गीतों में पिरोकर वे लाते थे, उसे सुन मैं झूम उठता था. उनके कुछ गीतों का जिक्र यहां मैं जरूर करना चाहूंगा जो मुझे बेहद प्रिय रहे हैं. जैसे-
बखरी के तुमा नार बरोबर…
ए ओ मोर पड़की मैना…
मयं बंदत हौं दिन-रात वो, मोर धरती मईया, जय होवय तोर…
भारत मां के रतन बेटा मयं छत्तीसगढ़िया अंव रे…
मोर संग चलव रे….
धनी बिन्ना सुन्ना लागे रे…
मन डोले रे मांग फगुनवा….
लक्ष्मण मस्तुरिया ने ऐसे अनेक गीत लिखे और गाए हैं, जो छत्तीसगढ़ियों के लिए जनगीत बन गए. छत्तीसगढ़ियों के रग-रग में गीतों के माध्यम से वे बसते गए. ‘सोनाखान के आगी’ जैसे खण्डकाव्य लेकर जब वे आए तो छत्तीसगढ़ियों ने उनके अंदर की आग और बगावत को देखा. ‘मयं छत्तीसगढ़ के माटी अंव….’ के बाद तो जैसे वे छत्तीसगढ़ियों के आगी और बागी कवि हो गए.
‘सोनाखान के आगी’ के माध्यम से उन्होंने छत्तीसगढ़ियों के स्वाभिमान को जगाने का काम किया. उन्होंने छत्तीसगढ़ी अस्मिता की ओर छत्तीसगढ़ियों का ध्यान दिलाया. इसी तरह से उन्होंने ‘मैं भारत मां के रतन बेटा…’ लिखकर जो भाव छत्तीसगढ़ियों के अंदर भरा, आज उसी का परिणाम है कि छत्तीसगढ़िया पूरे सम्मान के साथ कहते हैं…मैं छत्तीसगढ़िया अंव रे…
उनके लिखे गीतों ने मुझ जैसे तमाम छत्तीसगढ़ियों को झकझोरने का काम किया. बतौर पत्रकार मैं उन्हें जितना कवर कर पाया, जितना उनके जीवन को समझ पाया और जितना उनके बारे अन्य लोगों से जान पाया, उससे यह समझ पाया कि वे बहुत ही खुद्दार और फक्कड़ किस्म के व्यक्ति रहे. कभी शोहरत और दौलत के पीछे नहीं भागे. वे कभी सम्मान के पीछे नहीं भागे. अपने अक्खड़पन के चलते वे अपने जैसे ही कई लोगों के लिए साथ होकर साथ नहीं थे. वे यह जानते थे कि उनका किस तरह से कई लोगों ने फायदा उठाया, लेकिन उन्होंने किसी के खिलाफ कभी कोई बात नहीं कही.
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के आंदोलन में बहुत से लोग शामिल हुए, लेकिन एक कवि और गीतकार के रूप में जिन चेहरों को कभी भुलाया नहीं जा सकता, उनमें एक नाम लक्ष्मण मस्तुरिया का भी है. पृथक छत्तीसगढ़ की मांग को अपने गीतों के जरिए स्वर देने का काम मस्तुरिया बखूबी करते रहे. उन्होंने छत्तीसगढ़ियों के हर दर्द को बहुत करीब से महसूस किया. उनके गीतों में यह दर्द देखने को भी मिलता है.
मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ जब नया राज्य बना तो इसके साथ ही छत्तीसगढ़ी फिल्म आई ‘मोर छइंया भुइंया.’ इस फिल्म के गीत लक्ष्मण मस्तुरिया ने लिखे. पलायन के दर्द और गांव को जिस तरह से उन्होंने इस फिल्म के शीर्षक गीत में उकेरा वह राज्य बनने के इस 21 साल बाद भी उसी असर के साथ कायम है. ‘छइंया-भुइंया ल छोड़ जवइया तयं थिराबे कहां रे…’ दरअसल वे अपने गीतों के साथ छत्तीसगढ़ को, छत्तीसगढ़ियों को हर पल जीते रहे.
जनकवि मस्तुरिया के जीवन में छत्तीसगढ़ियों की उपेक्षा और शोषण की पीड़ा हमेशा उनकी बातों में, गीतों में मैंने झलकते देखा. उन्होंने इस पीड़ा को दूर करने एक नई पारी की शुरुआत की. यह पारी राजनीतिक थी. हालांकि वे इसके खिलाड़ी नहीं थे और न ही वे राजनीति के लिए बने थे, इसलिए उसमें सफल भी नहीं हो पाए.
दरअसल, दिल्ली से एक नए राजनीतिक दल ‘आम आदमी पार्टी’ का उदय हुआ था. यह पार्टी दिल्ली से बहुत जल्द छत्तीसगढ़ पहुंच गई और इसी पार्टी के साथ लक्ष्मण मस्तुरिया भी हो गए. पार्टी ने उन्हें 2014 में महासमुंद लोकसभा से उम्मीदवार बनाया, लेकिन छत्तीसगढ़ियों ने अपने जनकवि को एक राजनेता के रूप में स्वीकार नहीं किया. लक्ष्मण मस्तुरिया के लिए शायद चुनाव एक बड़ी भूल रही. यही वहज थी कि चुनाव के बाद वे राजनीति से कोसों दूर हो गए.
लक्ष्मण मस्तुरिया इसके बाद फिर से गीतों के साथ छत्तीसगढ़ियों की आवाज बनकर लौटे. वे छत्तीसगढ़ियों के आंदोलन का हिस्सा बन गए. खास तौर पर वे छत्तीसगढ़ी भाषा में पढ़ाई-लिखाई और काम-काज की मांग को लेकर छत्तीसगढ़ी राजभासा मंच के साथ सक्रिय हो गए.
इस दौरान मुझे उनके गुस्से का एक बार शिकार भी होना पड़ा था. दरअसल, राजभाषा मंच की ओर से आयोजित धरने को मैं कवर कर था. इस दौरान बातचीत में वे मुझ पर भड़क उठे थे. उनका गुस्सा जायज भी था. क्योंकि उन्हें इस बात की पीड़ा थी कि मीडिया में छत्तीसगढ़ियों की आवाज उस तरह से नहीं उठाई जाती, जिस तरह से उठाया जाना चाहिए. बाद में उनसे लगातार जुड़ाव बना रहा. होली के दौरान उनके घर जाकर कार्यक्रम कवर करना और उनके साथ वक्त बिताने का जो अवसर मिला, वो जीवन के सबसे यादगार क्षणों में से है.
3 नवंबर 2018 की सुबह एक बुरी खबर लेकर आई. खबर थी लक्ष्मण मस्तुरिया नहीं रहे. पता चला कि घर में दिल का दौरा पड़ने मस्तुरिया जी का निधन हो गया है. उनका जाना जैसे छत्तीसगढ़ियों के बीच किसी अपने का चले जाना था.
आज 6वीं बरसी है. मस्तुरिया जी की कमी मुझे व्यक्तिगत तौर पर हमेशा खलती रहेगी. मुझे ही क्या तमाम छत्तीसगढ़वासियों को भी यह कमी खलती होगी.
उनका देखा हुआ सपना आज भी अधूरा है. सोनाखान के आगी में अपने अपने को जीते हुए लिखा है-
एक न एक दिन ये पीरा ह रार मचाही रे
नरी कटाही बइरीमन के नवा सुरुज फेर आही रे
पुण्यतिथि के इस मौके पर जनकवि को मैं सादर नमन करता हूँ. मस्तुरिया जी सही मायने में भारत के रतन बेटा थे.
पुन: सादर नमन
जय जोहार….
-डॉ. वैभव बेमेतरिहा
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