देहरादून. जनसेवक जैसे लफ्ज अब की राजनीति में केवल बैनर और पोस्टर तक ही सीमित रह गए हैं. वास्तविक जनसेवक तो बहुत कम ही होते हैं. इतने कम कि इनकी गिनती तो उंगलियों में भी की जा सकती है. उसमें भी शायद उंगलियां ज्यादा पड़ जाएं. आज के समय में राजनीति में लोग केवल सत्ता भोगने के लिए आना चाहते हैं, सेवा भाव से नहीं. दिखाने के लिए तो सामने-सामने सभी सेवक होते हैं. लेकिन बात जब अपने पर आ जाती है तो सेवक का चोला उतर जाता है और भोगी का चेहरा सामने आ जाता है. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उत्तराखंड में देखने को मिला है.

सेवा के बदले सुविधा

दरअसल, पूर्व विधायक संगठन मुख्य सचिव से मुलाकात करने उनके कार्यालय पहुंचे. सचिवालय में पूर्व विधायकों की आमद इस बात को लेकर थी कि शासन ने इन्हें दी जाने वाली सुविधाओं में कटौती कर दी है. इससे नाराज पूर्व विधायक अपनी शिकायत लेकर सीएस के पास पहुंचे. आश्चर्य की बात ये है कि अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियों से आने वाले और वैचारिक मतभेद रखने वाले नेताओं के विचार अपनी सुख-सुविधाओं को एक हो गए. राजनीति को सेवा मानने वाले नेतागण जो शिकायत लेकर पहुंचे उससे ये तो साबित हो गया कि अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती इन्हें बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं है.

असंवेदनशील सरकार

पूर्व विधायकों का कहना है कि शासन ने बिना किसी ठोस कारण के पहले से दी जा रही सुविधाओं में कटौती कर दी है. जो सही नहीं है. लिहाजा संगठन ने अपना विरोध दर्ज कराया. पूर्व विधायकों ने सीएस आनंद बर्द्धन से शिकायत करते हुए कहा कि यात्रा भत्ता, महंगाई भत्ता और आवासीय सुविधाओं में दी जाने वाली रियायतें अब सीमित कर दी गई हैं. ये निर्णय असंवेदनशील है. ये उन जनप्रतिनिधियों के प्रति अन्यायपूर्ण है जिन्होंने वर्षों तक जनता की सेवा की है.

ये सम्मान और परंपरा का मामला है

संगठन के साथ पहुंचे कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे एक पूर्व विधायक ने कहा कि जो सुविधाएं पहले मिलती रही हैं, उन्हें जारी रखा जाना चाहिए. उन्होंने इसे सम्मान और परंपरा से जोड़ दिया और सरकार से इस पर पुनर्विचार करने की मांग की. इसी बीच 2017 में भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ने वाले एक पूर्व विधायक ने कहा कि अब तक पूर्व विधायक और सांसदों को सरकारी अतिथि गृहों में आगंतुक सूची में रखा जाता था. जिससे उन्हें आवास व्यवस्था में प्राथमिकता मिलती थी, लेकिन हालिया आदेश के बाद उन्हें इस सूची से हटा दिया गया है.

नाइंसाफी

पूर्व विधायक को इस बात से एतराज था कि दिल्ली स्थित उत्तराखंड निवास में वर्तमान विधायकों को ठहरने के लिए 1500 रुपये देने होते हैं, लेकिन पूर्व विधायकों 3500 रुपये लिए जा रहे हैं. पूर्व विधायकों ने स्पष्ट किया कि वे सुविधाओं के दुरुपयोग के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन जिस तरह से एकतरफा तरीके से रियायतों में कटौती की गई है, वह गलत संदेश देती है.

सर्विस टैक्स?

इन सबके बीच एक अच्छी बात ये रही कि पूर्व विधायकों ने जनहित का मुद्दा भी उठा दिया. जाहिर है केवल अपनी सुविधाओं की बात करना भी अच्छा नहीं है, सो पूर्व विधायक संगठन ने राज्य में बेरोजगारों, उपनल कर्मचारियों और किसानों की समस्याओं का मुद्दा भी सीएस के सामने रख दिया. ताकि ये ना लगे कि बात केवल अपनी सुविधाओं को लेकर की गई. इसलिए संगठन ने सरकार से इन वर्गों की समस्याओं पर भी गंभीरता से विचार करने की मांग की. खैर, एक विचारणीय विषय है कि यदि नेता राजनीति को सेवा मानते हैं तो सेवा में वेतन कैसा? यदि वेतन ले रहे हैं तो सेवा कैसी? कहीं ये सर्विस टैक्स तो नहीं?