दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court)ने 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान तब्लीगी जमात से जुड़े विदेशी नागरिकों को शरण देने के मामले में अपना फैसला सुरक्षित रखा. इस मामले में 70 भारतीय नागरिकों ने हाईकोर्ट में याचिकाएं दायर की थीं. इन भारतीय नागरिकों के खिलाफ IPC, एपिडेमिक डिजीज एक्ट, डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट और फॉरेनर्स एक्ट की विभिन्न धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी.

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जस्टिस नीना बंसल की पीठ ने तब्लीगी जमात से संबंधित 70 भारतीय नागरिकों के खिलाफ दर्ज 16 एफआईआर के मामले में अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया है. इन आरोपियों पर कोविड-19 महामारी के दौरान 24 मार्च 2020 से 30 मार्च 2020 के बीच विभिन्न मस्जिदों में विदेशी नागरिकों को शरण देने के आरोप में आईपीसी की धारा 188/269/270/120-बी के तहत चार्जशीट पेश की गई थी.

इन भारतीय नागरिकों द्वारा शरण प्राप्त करने वाले 195 विदेशी नागरिकों के नाम भी एफआईआर में शामिल हैं. हालांकि, अधिकांश के खिलाफ चार्जशीट में कोई आरोप नहीं लगाया गया, या ट्रायल कोर्ट ने दोहरे खतरे के सिद्धांत के आधार पर मामले को स्वीकार करने से मना कर दिया. इसका कारण यह है कि विदेशी नागरिकों के एक ही समूह पर समान प्रकार के अपराधों के लिए चार्जशीट प्रस्तुत की गई थी.

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याचिकाकर्ताओं की ओर से वकील आशिमा मंडला और मंदाकिनी सिंह ने हाईकोर्ट में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. वकील आशिमा मंडला ने इस मामले से संबंधित अन्य अदालतों के निर्णयों को भी रिकॉर्ड में प्रस्तुत किया.

तब्लीगी जमात के आयोजन से संबंधित यह मामला सार्वजनिक स्वास्थ्य पर इसके संभावित प्रभाव और महामारी के दौरान नियामक दिशानिर्देशों के अनुपालन के कारण कानूनी जांच के दायरे में है.

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दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने कोविड-19 महामारी के दौरान हुए कथित उल्लंघनों के मामले में भारतीय और विदेशी नागरिकों के खिलाफ आईपीसी, एपिडेमिक डिजीज एक्ट, डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट और फॉरेनर्स एक्ट की विभिन्न धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की. इस संदर्भ में कई चार्जशीट भी प्रस्तुत की गईं, जिनमें कई विदेशी नागरिकों ने अपनी दलीलें पेश कीं.

दिल्ली में 193 व्यक्तियों के खिलाफ 28 एफआईआर दर्ज की गईं, जिसके परिणामस्वरूप दिल्ली हाईकोर्ट में दायर याचिकाएं खारिज कर दी गईं. याचिकाकर्ताओं पर लगाए गए आरोपों की कानूनी वैधता पर प्रश्न उठे, विशेष रूप से आईपीसी की उन धाराओं के संदर्भ में जिनमें विशिष्ट प्रक्रियात्मक आवश्यकताएं होती हैं. देशभर की अदालतों ने पहले भी इसी प्रकार की प्रक्रियात्मक खामियों और अपर्याप्त सबूतों के आधार पर ऐसे मामलों को खारिज किया है.