दिल्ली हाईकोर्ट(Delhi High Court) ने एक पॉक्सो (POCSO) मामले में अहम फैसला सुनाते हुए आरोपी व्यक्ति को बरी कर दिया है। अदालत ने कहा कि बिना किसी ठोस सबूत या स्पष्ट गवाही के केवल “शारीरिक संबंध” शब्द का इस्तेमाल बलात्कार या गंभीर यौन उत्पीड़न को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। जस्टिस मनोज कुमार ओहरी की एकल पीठ ने कहा कि यह मामला बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि पीड़िता के माता-पिता ने बार-बार “शारीरिक संबंध” शब्द का प्रयोग किया, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि इससे उनका सटीक मतलब क्या था। अदालत ने यह भी कहा कि इस तरह की अस्पष्ट गवाही के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम निर्णय में कहा है कि बिना किसी सहायक सबूत के केवल “शारीरिक संबंध” शब्द का प्रयोग बलात्कार या यौन उत्पीड़न को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। अदालत ने इस आधार पर आरोपी को पॉक्सो (POCSO) और आईपीसी की धारा 376 के आरोपों से बरी कर दिया।

जस्टिस मनोज कुमार ओहरी की एकल पीठ ने कहा, “बिना किसी सहायक सबूत के केवल ‘शारीरिक संबंध’ शब्द का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए काफी नहीं है कि अभियोजन पक्ष ने अपराध को संदेह से परे सिद्ध किया है। आरोपी की आईपीसी की धारा 376 और पॉक्सो ऐक्ट की धारा 6 के तहत सजा टिकने योग्य नहीं है।”

नाबालिग पीड़िता ने चचेरे भाई पर लगाए थे रेप के आरोप

जस्टिस ओहरी ने आरोपी की उस याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसमें उसने आईपीसी की धारा 376 और पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत अपनी दोषसिद्धि और 10 साल के कठोर कारावास की सजा को चुनौती दी थी। अदालत ने याचिका पर सुनवाई के बाद फैसला सुनाया कि सजा टिकने योग्य नहीं है और आरोपी को बरी कर दिया गया।

यह मामला 2023 में दर्ज किया गया था। पीड़िता ने आरोप लगाया कि 2014 में उसका चचेरा भाई आरोपी ने उसे शादी का झांसा देकर लगभग एक साल से अधिक समय तक शारीरिक संबंध बनाए।

अदालत ने कहा कि इस तरह की संवेदनशील परिस्थितियों में साक्ष्यों की सटीकता और विश्वसनीयता अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। केवल शब्दों की अस्पष्ट व्याख्या के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। न्याय सुनिश्चित करने के लिए फॉरेंसिक और भौतिक सबूतों की भूमिका अहम है।

जस्टिस मनोज कुमार ओहरी ने कहा कि “शारीरिक संबंध” शब्द का इस्तेमाल या परिभाषा न तो आईपीसी में है और न ही POCSO एक्ट में। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह स्पष्ट नहीं किया गया कि पीड़िता के संदर्भ में ‘शारीरिक संबंध’ शब्द का वास्तविक अर्थ क्या था और क्या यह यौन भेद्य हमले के आवश्यक तत्वों को पूरा करता है।

कोर्ट ने आगे कहा “यदि ऐसा लगता है कि बाल गवाह की गवाही में आवश्यक जानकारी नहीं है, तो कोर्ट का यह वैधानिक कर्तव्य है कि वह प्रासंगिक तथ्यों का उचित प्रमाण प्राप्त करने या पता लगाने के लिए प्रश्न पूछे, और पहले पीड़ित बाल गवाह की गवाही देने की योग्यता के बारे में स्वयं संतुष्ट हो। इसके बाद यह सुनिश्चित करे कि पूरी गवाही रिकॉर्ड पर लाई जाए।”

कोर्ट मूकदर्शक नहीं बने रह सकते

फैसले में यह भी कहा गया कि यदि अभियोजन पक्ष अपेक्षित ढंग से अपना काम नहीं कर रहा है, तो कोर्ट मूकदर्शक नहीं बने रह सकते और उन्हें मुकदमे में सहभागी भूमिका निभानी होगी। कोर्ट को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कमजोर गवाहों पर प्रक्रिया का बोझ न पड़े और प्रासंगिक दिशा-निर्देशों का पालन उनकी वास्तविक भावना के अनुरूप किया जाए।

कोर्ट ने कहा “मौजूदा मामले में, पीड़िता या उसके माता-पिता की गवाही से पता चलता है कि बार-बार ‘शारीरिक संबंध’ स्थापित होने की बात कही गई है, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि ‘शारीरिक संबंध’ शब्द का क्या अर्थ था। कथित कृत्य का कोई और विवरण नहीं दिया गया है। दुर्भाग्य से, अभियोजन पक्ष या निचली अदालत ने पीड़िता से कोई सवाल नहीं पूछे, जिससे यह साफ हो सके कि अपीलकर्ता पर लगाए गए अपराध के आवश्यक तत्व सिद्ध हुए हैं या नहीं।”

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