दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi High Court) ने घरेलू हिंसा कानून के तहत महिला के ‘शेयर्ड हाउसहोल्ड’ अधिकार को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह अधिकार सुरक्षा से जुड़ा है, न कि ससुराल की संपत्ति पर मालिकाना हक या अनिश्चित समय तक वहां रहने का लाइसेंस। विशेष रूप से उन मामलों में, जहां बेटी या बहू की मौजूदगी से बुज़ुर्ग सास-ससुर को मानसिक और शारीरिक नुकसान हो रहा हो।

दिल्ली हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का दिया हवाला

दिल्ली हाई कोर्ट की बेंच जस्टिस अनिल क्षेतरपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कई मामलों में यह स्पष्ट कर चुका है कि महिला के रहने के अधिकार को वरिष्ठ नागरिक माता-पिता के शांतिपूर्ण जीवन और संपत्ति के अधिकारों के साथ संतुलित करना आवश्यक है।

हाई कोर्ट ने मंजू अरोड़ा बनाम नीलम अरोड़ा मामले का हवाला देते हुए कहा कि जब सास-ससुर की सेहत और गरिमा प्रभावित हो रही हो, तो बहू को अनंत काल तक उनके घर में रहने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। कोर्ट ने आगे कहा कि किसी भी कानून की व्याख्या इस प्रकार नहीं की जा सकती कि घर का मालिक अपने ही घर में शांति से रहने के अधिकार से वंचित हो जाए।

दिल्ली हाई कोर्ट ने उस महिला की अपील खारिज कर दी, जिसमें उसने सिंगल जज के आदेश को चुनौती दी थी। सिंगल जज ने महिला को दो महीने के भीतर ससुराल का मकान खाली करने के साथ ही पति को वैकल्पिक आवास और मासिक भरण-पोषण देने के अंतरिम निर्देश दिए थे। हाई कोर्ट ने कहा कि जज का फैसला सही था, क्योंकि बहू का वहां रहना सास-ससुर के लिए गंभीर परेशानी का कारण बन रहा था।

दिल्ली हाई कोर्ट ने दिया अहम आदेश

दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि तय किया गया अंतरिम इंतजाम संतुलित और न्यायसंगत है, जिससे महिला और बच्चों की जरूरतें पूरी होती हैं, वहीं बुजुर्गों को भी सम्मानजनक और शांतिपूर्ण जीवन मिल सकता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह मामला ऐसा नहीं है जिसमें महिला को बेघर किया जा रहा हो, क्योंकि वैकल्पिक और सम्मानजनक आवास की व्यवस्था की गई है। अदालत ने आगे कहा कि कानून यह नहीं कहता कि सिर्फ रहने के अधिकार के नाम पर बुज़ुर्ग माता-पिता को लगातार तनावपूर्ण वातावरण में रहने के लिए मजबूर किया जाए।

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