रायपुर. भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है. जिसमे एक नाम धर्मराज का है जिनकी पूजा के साथ ही धर्म की पूजा भी की जाती है. धर्मराज के बारे में एक कथा है कि गहन वन से तृषार्त पाण्डव गुजर रहे थे. पानी की तलाश में वे इधर-उधर घूम ही रहे थे कि अकस्मात उन्हें एक सरोवर दिखाई दिया. भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव जल पीने के पूर्व ही मृत्यु का ग्रास बन गए. कारण यह था कि एक यक्ष ने उनसे प्रश्न किए थे, किंतु उन्होंने उस ओर ध्यान नहीं दिया और बिना जवाब दिए ही पानी पीने लगे, जिससे वे यक्ष का कोपभाजन बने और उन्हें मृत्यु प्राप्त हुई. इतने में युधिष्ठिर आए और पानी पीने की कोशिश करने लगे. उनसे भी यक्ष ने प्रश्न किए, जिनके युधिष्ठिर ने समुचित उत्तर दे दिए. तब यक्ष ने प्रसन्न होकर कहा, तुम जल पीने के अधिकारी हो. मेरी इच्छा है कि तुम्हारे चारों भ्राताओं में से किसी एक को जीवन दान दूं. बोलो, मैं किसे पुनर्जीवित करूं?

प्रश्न बड़ा ही विचित्र था और साथ ही कठिन भी, क्योंकि युधिष्ठिर को चारों भाई एक समान प्रिय थे, तथापि एक क्षण भी सोचे बिना वे बोले, यक्षश्रेष्ठ आप नकुल को ही जीवन दान दें. यक्ष हंस पड़ा और बोला, धर्मराज, कौरवों से युद्ध में भीम की गदा और अर्जुन का गांडीव बड़ा ही उपयोगी सिद्ध होगा. इन दो सगे भाइयों को छोड़कर नकुल का जीवन क्यों चाहते हो. धर्मराज बोले, यक्षश्रेष्ठ हम पांचों भ्राता ही माताओं के स्नेह चिह्न हैं. माता कुंती के पुत्रों से मैं शेष हूं, किंतु माद्री मां के तो दोनों ही पुत्र मर चुके हैं. अतः यदि एक के ही जीवन का प्रश्न है, तो माद्री मां के नकुल का ही पुनर्जीवन इष्ट है.

यक्ष ने सुना, तो भावविह्वल हो बोला, युधिष्ठिर तुम धर्मतत्व के ज्ञाता हो, मैं तो सिर्फ तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि तुम वास्तव में धर्म के अवतार हो या नहीं. अतएव मैं चारों भाईयों को जीवन देता हूं. तब से धर्मराज दशमी व्रत कि शुरुआत हुई. इस व्रत के करने वाले व्रती को अपने आंगन में दसों दिशाओं के चित्रों की पूजा करनी चाहिए. दशमी का व्रत के करने से व्यक्ति की सभी कामना पूर्ण हो जाती हैं. इस व्रत को पूर्ण करने से कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है. पति के यात्रा-प्रवास पर जाने और जल्दी लौट कर न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है. शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत के करने से पीड़ा दूर हो जाती है.

लाभ तथा महत्त्व

भगवान श्रीकृष्ण के मुख से इस कथा को सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा- हे गोविन्द! यह दशमी व्रत किस प्रकार और कैसे किया जाता है तथा इसके क्या लाभ हैं? आप सर्वज्ञ हैं. आप इसे बताएं. युधिष्ठिर की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले- हे राजन! इस व्रत के प्रभाव से राजपूत्र अपना राज्य, कृषि, खेती, वणिक व्यापार में लाभ, पुत्रार्थी पुत्र तथा मानव धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि प्राप्त करते हैं. कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है. ब्राह्मण निर्विघ्र यज्ञ सम्पन्न कर लेता है. असाध्य रोगों से पीड़ित रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और पति के यात्रा-प्रवास पर जाने पर और जल्दी न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है. शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत से पीड़ा दूर हो जाती है और कष्ट नहीं होता. इसी प्रकार अन्य कार्यों की सिद्धि के लिए इसी दशमी व्रत को करना चाहिए. जब भी जिस किसी को कष्ट पड़े, उसकी निवृत्ति के लिए इस व्रत को पूरी श्रद्धा और सच्चे मन से करना चाहिए.

यह व्रत चैत्र शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को किया जाता है. इस दिन प्रातः काल स्नान करके देवताओं की पूजा कर रात्रि में पुष्प, अलक तथा चन्दन आदि से दस दिशाओं की पूजा करनी चाहिए. घर के आंगन में जौ से अथवा पिष्टातक से पूर्वादि दसों दिशाओं के अधिपतियों की प्रतिमाओं को उनके वाहन तथा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कर उन्हें ही ऐन्द्री आदि दिशा- देव देवियों के रूप मे मानकर पूजन करना चाहिए. सब को घृतपूर्ण नैवेद्य, पृथक-पृथक् दीपक तथा ऋतु फल आदि समर्पित करना चाहिए.

इस प्रकार विधिवत पूजा कर ब्राह्मण को दक्षिणा प्रदान कर प्रसाद ग्रहण करना चहिए. अनन्तर बन्धु-बान्धवों एवं मित्रों के साथ प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिए. जो इस दशमी व्रत को श्रद्धापूर्वक करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं.