भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश की जनता द्वारा निर्वाचित बहुमत की सरकार को राजनीतिक दांव-पेंच और दल बदल कानून में दरार ढूंढ कर जनता के फैसले के विपरीत छद्म बहुमत से सरकार बना ली और फिर सदन में छद्म बहुमत की औपचारिकता भी बहुमत सिद्ध कर पूर्ण कर ली.
लेकिन मंत्रिमंडल का गठन नहीं करने से यह स्पष्ट हो गया है कि मध्यप्रदेश में शिवराज का राज तो है लेकिन संविधान के प्रावधानों के अनुरूप सरकार का गठन अभी तक नहीं हुआ है और शिवराज सरकार संविधान सम्मत नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 163 के अंतर्गत मंत्रिमंडल का गठन नहीं होने से केवल मुख्यमंत्री के द्वारा लिए गए समस्त निर्णय प्रभावी नहीं किए जा सकते संविधान में राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद होने का उल्लेख है लेकिन मध्यप्रदेश में केवल प्रधान है बाकी परिषद नदारद।
मध्यप्रदेश जैसे विस्तृत राज्य में लंबे समय से समस्त विभाग राजनीतिक कार्यपालिका के प्रभावी नेतृत्व के अभाव में केवल एक व्यक्ति की इच्छा और कार्यशैली से संचालित है फल स्वरूप संपूर्ण प्रदेश में नेतृत्व विहीन विभागों के होने से अव्यवस्था का आलम बना हुआ है।
शिवराज की क्षमता और योग्यता पर कोई संदेह करने का आशय नहीं है लेकिन संविधान के प्रावधानों से इतर कोई भी व्यवस्था संविधान के अनुरूप शासन व्यवस्था में स्वीकार नहीं की जा सकती।
संविधान देश का सर्वोच्च कानून है, शासन व्यवस्था के संचालन के लिए इसमें मंत्रिमंडल की व्यवस्था है वर्तमान में यह संख्या सदन में विधायकों की संख्या का 15% है. 23 मार्च को मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह ने शपथ ली लेकिन 20 दिनों के असामान्य विलंब के पश्चात भी मंत्रिमंडल का गठन नहीं होने से प्रदेश में असंवैधानिक व्यवस्था की स्थिति निर्मित हो गई है जो संसदीय प्रजातंत्र में स्वीकार नहीं की जा सकती मंत्रिमंडल के गठन में असामान्य विलंब का संभवत यह देश का पहला मामला है और इस विलम्ब का कोई औचित्यपूर्ण कारण अभी तक प्रकट नहीं हुआ है सिवाय इसके कि सिंधिया समर्थकों और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को संतुष्ट करते हुए मंत्रिमंडल का गठन शिवराज सिंह और भाजपा के लिए गले की फांस बन गई है.
यह संयोग ही है कि वर्ष 2019 में येदुरप्पा के मुख्यमंत्री की शपथ लेने और मंत्रिमंडल के गठन में कुछ दिनों के विलंब को आधार बनाकर दायर पिटिशन wp40097/2019 के उच्च न्यायालय में विचाराधीन रहने के दौरान ही मंत्रीमंडल के गठन हो जाने के फलस्वरूप उच्च न्यायालय ने पिटीशन के इस बिंदु पर विचार करने से इंकार कर दिया था।
देश के संविधान के प्रावधानों का उसकी मूल भावना के अनुरूप क्रियानवयन उच्च पदस्थ पदाधिकारियों का दायित्व है और उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि प्रत्येक संवेधानिक जिम्मेदारी की पूर्ति के लिए न्यायालय के हस्तक्षेप का इंतजार करें।
लेखक- देवेंद्र वर्मा, छत्तीसगढ़ विधानसभा के प्रमुख सचिव रह चुके हैं.