सरकार के बदलते ही ‘आपातकाल’ की पीठ को नंगा करके जिस बहादुरी के साथ उसपर हर साल कोड़े बरसाए जाते हैं ,मुमकिन है आगे चलकर 25 जून को ‘मातम दिवस’ के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने और उस दिन सार्वजनिक अवकाश रखे जाने की माँग भी उठने लगे।ऐसा करके किसी सम्भावित,अघोषित या छद्म आपातकाल को भी चतुराई के साथ छुपाया जा सकेगा।नागरिकों का ध्यान बीते हुए इतिहास की कुछ और निर्मम तारीख़ों जैसे कि 13 अप्रैल 1919 के जलियाँवाला हत्याकांड या फिर छः दिसम्बर 1992 की ओर आकर्षित नहीं होने दिया जाता है जब बाबरी मस्जिद के ढाँचे को ढहा दिया गया था और उसके बाद से देश में प्रारम्भ हुए साम्प्रदायिक विभाजन का अंतिम बड़ा अध्याय गोधरा कांड के बाद लिखा गया था।आश्चर्य नहीं होगा अगर सत्ता में सरकारों की उपस्थिति के हिसाब से ही सभी तरह के पर्वों और शोक दिवसों का भी विभाजन होने लगे।चारण तो ज़रूरत के मुताबिक़ अपनी धुनें तैयार रखते ही हैं।

आज जब आपातकाल को लेकर एक लम्बी अवधि की बरसी मनाई जा रही है और केवल इक्कीस महीनों के काले दिनों को ही बार-बार सस्वर दोहराया जा रहा है, कुछेक बातें उन इंदिरा गांधी के बारे में भी की जा सकती हैं जो आज की दुनिया के कई छुपे हुए तानाशाहों के मुक़ाबले ज़्यादा प्रजातांत्रिक थीं।हमें यह नहीं बताया जाता है कि अगर उनका मूल संस्कार ही तानाशाही का था तो फिर वे आपातकाल के हटने के केवल तीन साल बाद ही हुए चुनावों में इतने प्रचंड बहुमत के साथ वापस कैसे आ गईं !

क्या नागरिकों ने इस सम्बंध में अपना सोच और शोध सम्पन्न कर लिया है कि आपातकाल आख़िर ख़त्म कैसे हुआ होगा? सारे नेता तो जेलों में बंद थे ! तब क्या जनता अपने सरों पर कफ़न बांधकर सड़कों पर उतर आई थी ? क्या कोई अमेरिकी दबाव रहा होगा जिसके सामने वह इंदिरा गांधी जो बांग्लादेश की लड़ाई के वक्त नहीं झुकी थीं ,जनवरी 1977 में झुक गई होंगी ? आपातकाल ख़त्म करने की घोषणा के पहले क्या वे तमाम कारण पूरी तरह से मिट गए थे जिनकी कि आड़ लेकर देश को त्रासदी में धकेला गया था ? अगर यह सब नहीं था तो फिर क्या कारण रहे होंगे ? हमें बताया क्यों नहीं जाता ?

राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तब संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक आपातकाल लगाने की इंदिरा सरकार की सिफ़ारिश पर हस्ताक्षर किए थे।देश में कथित तौर पर व्याप्त आंतरिक व्यवधान को आपातकाल लगाने का कारण बनाया गया था।याद पड़ता है तब इंडियन एक्सप्रेस में प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट अबु अब्राहम का एक कार्टून छपा था जिसमें दर्शाया गया था कि राष्ट्रपति की छवि का एक व्यक्ति नहाने के बड़े टब में खुले बदन बैठा हुआ है और बाथरूम का आधा दरवाज़ा खोलकर उससे किसी काग़ज़ पर हस्ताक्षर करवाए जा रहे हैं ।आपातकाल की घोषणा के बाद देश में जो कुछ भी हुआ वह उस समय के इतिहास में सिलसिलेवार दर्ज़ है ।पर जिन सवालों की ज़्यादा चर्चा नहीं की जाती या फिर होने नहीं दी जाती उनमें एक यह भी है कि अचानक से ऐसा क्या हुआ होगा कि 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने एक रेडियो प्रसारण के ज़रिए तत्कालीन संसद को भंग कर नए चुनाव कराए जाने की घोषणा कर दी।उसके बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त भी हो गया।

आपातकाल की इस तरह से अचानक समाप्ति और चुनावों की घोषणा किसी भूकम्प से कम नहीं थी।जेलों में बंद या भूमिगत हो चुके विभिन्न दलों के नेता, अन्य निर्दलीय कार्यकर्ता और जनता इस राहत भरे समाचार के लिए बिलकुल ही तैयार ही नहीं थी।मानकर यही चला जा रहा था कि आपातकाल लम्बा चलने वाला है।जेलों में बंद कई नेता माफ़ी माँगकर और इंदिरा गांधी के बीस-सूत्रीय कार्यक्रम पर हस्ताक्षर करके बाहर आने लगे थे।कई ने पैरोल की अर्ज़ियाँ लगा रखीं थी।जनता भी ख़ुश थी कि ट्रेनें समय पर चल रही हैं और सीधे हाथ वाला भ्रष्टाचार कम हो गया है।पत्रकारों की टोलियाँ भी इंदिरा गांधी के निवास पर सेन्सरशिप का समर्थन करने पहुँचने लगीं थी।सर्वत्र शांति थी।इंदिरा गांधी चाहतीं तो आपातकाल को बढ़ाती रहतीं।न्यायपालिका सहित सब कुछ पक्ष में था।फिर क्या कारण रहा होगा ?

इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल को ख़त्म करने के तब कई कारण गिनाए गए थे और उन पर यदा-कदा बहस भी होती रहती है।किताबें भी लिखी जा चुकी हैं।जिस एक बड़े कारण की यहाँ चर्चा करना उचित होगा वह यह है कि इंदिरा गांधी का मूल व्यक्तित्व प्रजातांत्रिक था।वे आपातकाल के कारण मिल रहे अपयश और अपकीर्ति से उसके लागू होने के कुछ ही महीनों में भयभीत हो गईं थीं।वे जनता से दूर नहीं होना चाहती थीं।उन्हें पक्की आशंका थी कि जिन चुनावों की वे घोषणा कर रही हैं उनमें वे हारने वाली हैं पर वे हार का सुख भी भोगने की इच्छा रखती थीं।उन्हें इस बात का भी कोई अनुमान नहीं था कि चुनावों में उनके हारने के बाद बनने वाली विपक्षी दलों की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के कारण इतने कम समय में गिर जाएगी और जब फिर से चुनाव होंगे (1980) वे ज़बरदस्त बहुमत के साथ फिर से सत्ता में आ जाएँगी।और क्या इस खुलासे पर भी आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि आपातकाल को समाप्त करने के फ़ैसले का संजय गांधी को भी पता इंदिरा गांधी के रेडियो प्रसारण से ही चला था।

आपातकाल लागू करना अगर देश में तानाशाही हुकूमत की शुरुआत थी तो क्या उसकी समाप्ति की घोषणा इंदिरा गांधी की उन प्रजातांत्रिक मूल्यों और परम्पराओं में वापसी नहीं थी जिनकी बुनियाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी ? अब हमें अपने भविष्य के नेताओं से किस तरह के साहस की उम्मीदें रखनी चाहिए ? क्या वे कभी विपरीत परिस्थितियों में इंदिरा गांधी की तरह ही अपयश और अपकीर्ति से भयभीत होने का प्रजातांत्रिक साहस दिखा पाएँगे ?और अंत में यह भी कि अगर आपातकाल की दोषी दिवंगत प्रधानमंत्री मूलतः प्रजातांत्रिक नहीं होतीं तो क्या प्रियंका गांधी में अपने विरोधियों को इतनी ऊँची आवाज़ में चुनौती देने का नैतिक साहस होता कि :’मैं इंदिरा गांधी की पोती हूँ ?’ शायद बिलकुल नहीं।
[7:20 PM, 6/29/2020] +91 91091 21403: आदिवासियों को बुरी तरह छला है कांग्रेस सरकार ने : भाजपा

भाजपा के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष विक्रम उसेण्डी, पूर्व मंत्रीद्वय केदार कश्यप और महेश गागड़ा ने संयुक्त बयान में अपनी मांगों को लेकर जिला प्रशासन से मिलने के लिए जा रहे आदिवासियों को भगाने के प्रयास की कड़ी निंदा की है।
भाजपा नेताओं ने कहा कि तेंदूपत्ता संग्राहक वनवासी भाइयों व बहनों के सब्र का बांध अब टूट गया है। पहले ख़रीदी में धोखा केवल 3 दिन खरीदी करने के बाद खरीदी बंद, 2 साल का बक़ाया बोनस ,बीमा कवर न देना , शिक्षा प्रोत्साहन के तहत तेंदुपत्ता संग्रहकर्ताओं के बच्चों को छात्रवृत्ति न देना और भुगतान को लेकर अनिश्चितता से बस्तर के आदिवासीजन काफ़ी आक्रोश में हैं। वहां उनकी तकलीफ़ सुनने वाला कोई नही है। शासन की लगातार उपेक्षा ने उन्हें आंदोलन करने पर मजबूर कर दिया है। आंदोलनरत भाइयों से केवल कांग्रेस जन प्रतिनिधि को ही मिलने दिया और भाजपा व अन्य राजनीतिक दल के लोगों को मिलने से रोक दिया गया जो राज्य सरकार का तानाशाही रवैय्या है ।

भाजपा नेताओं ने कहा कि बहुत दुःखद है कि अपने हक से वंचित वनवासी दर-दर भटकने को मज़बूर हैं। वोट लेने के लिये उन्हें कांग्रेस द्वारा बुरी तरह छला गया है।

भाजपा नेताओं ने कहा कि दो साल का बोनस न देने के बाद खरीदी बन्द होने के कारण संग्राहकों को तेंदूपत्ता नदी में फेंकना पड़ा है, पड़ोसी प्रदेश में सस्ते दामो पर बेचना पड़ा। जबकि कांग्रेस सरकार ने सत्ता पाने के लिए झूठे वादे किए, गंगाजल की झूठी कसम खाई, पर सत्ता में आते ही अपने सभी वादों को यह सरकार भूल बैठी है। ऐसी सरकार पर समाज को भरोसा नही रहा। उन्होंने कहा कि भूपेश बघेल सरकार हर मोर्चे पर फेल साबित हुई है। आदिवासियों का आंदोलन कांग्रेस सरकार को उखाड़ फ़ेक देगा, यह ध्यान रखना चाहिये।

नेताओं ने कहा कि आदिवासी भाइयों की माँगें पूरी करना तो दूर, शासन का कोई नुमाइंदा अब उनका दुःख दर्द सुनना तक नही चाहता। उन्होंने कहा कि जहां से मार्च शुरू हुआ था, वहां कोई अधिकारी अगर मिल भी लेता आंदोलनकारियों से तो हालात ऐसे नही ख़राब होते। भाजपा नेताओं ने कहा कि सीधे-साधे बस्तरिया बंधुओं को ठगना, उन्हें खदेड़ना कांग्रेस को काफ़ी महँगा पड़ेगा।