@ अनिल सिंह कुशवाह. कई ऐसी पुरानी कहावतें हैं जो राजनीति में आज भी प्रासंगिक हैं। ऐसी ही एक कहावत है, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना..! कर्नाटक के नतीजे आने के बाद कमोवेश कांग्रेस की यही स्थिति है। कर्नाटक की सत्ता पर ‘प्रत्यक्ष शासन’ जाने के बाद कांग्रेस सिर्फ इसलिए खुश है कि उसने ये सत्ता भाजपा के पास नहीं जाने दी। 37 विधायकों वाला जो तीसरा दल है, उसे अपने 78 विधायकों का समर्थन देकर वह सरकार में अब उसकी पिछलग्गू बन गई है। और 104 सदस्यों वाली भाजपा विपक्ष में बैठेगी। कर्नाटक के इस ‘नाटक’ में आगे-आगे देखिए होता है क्या ? आनंद तो आएगा। लेकिन बड़ा सवाल यह है, क्या कर्नाटक से कांग्रेस नेताओं ने कोई सबक लिया है ? वोट प्रतिशत के मामले में कांग्रेस वहां भाजपा से आगे रही है, लेकिन ‘बूथ प्रबंधन’ में वह पिछड़ गई। जिसके चलते सबसे ‘धन संपन्न’ राज्य कर्नाटक की सत्ता में वह अब फॉलोअर की भूमिका में आ गई ? कांग्रेस को जश्न मनाने की बजाय कर्नाटक से सबक लेना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ‘बड़े संग्राम’ यानी 2019 के चुनाव से ठीक 6 महीने पहले अब 4 राज्यों में चुनाव होने हैं। यदि बूथ मैनेजमेंट पर ध्यान नहीं दिया तो कहीं इन राज्यों में भी सत्ता उसके लिए ख्वाब बनकर न रह जाएं ?

सही मायने में कांग्रेस के सामने ‘करो या मरो’ की स्थिति तो अब शुरू हुई है। कर्नाटक में दूसरे नम्बर पर आने के बाद ‘सबसे पुरानी’ पार्टी कांग्रेस क्या अब वाकई ‘वेंटिलेटर’ पर आ गई है ? पहले केंद्र से सफाया, फिर एक के बाद एक राज्यों से सत्ता छिनने के बाद अंत में कर्नाटक ही ऐसा बड़ा राज्य बचा था, जो उसके ‘खर्चे’ उठा रहा था। क्योंकि जिन राज्यों में सत्ता होती है, वे राज्य ही पार्टी का खर्चा उठाते हैं। जेडीएस के नेता एच.डी. कुमार स्वामी के राज में कर्नाटक की कांग्रेस इकाई अपनी पार्टी के विस्तारक खर्चे अब कैसे पूरे करेगी, यह भी बड़ा सवाल है ? देखा जाए तो कांग्रेस के सामने ‘अर्थ’ का संकट भी खड़ा हो गया है ?

ऐसे में नवंबर में होने वाले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम, इन 4 राज्यों के विधानसभा चुनाव कांग्रेस को 2019 के लिए ‘टॉनिक’ दे सकते हैं। लेकिन, इसमें भी ‘म्युचुअल फंड’ स्कीम की तरह ‘स्टार कंडीशन’ जुड़ी हुई है। नहीं तो तीन बड़े राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ जन असंतोष होने के बाबजूद कांग्रेस के लिए ये ‘रण’ जीतना आसान नहीं है। दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता होने के बाद भी मध्य प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति उस विद्यार्थी की तरह है, जो परीक्षा नजदीक आने पर जागता है और फिर कुंजी के सहारे अच्छे नम्बर आने की उम्मीद करता है।

खैर, ये परीक्षा पास करने के लिए उसे अच्छे उम्मीदवार देने के साथ उस बूथ मैनेजमेंट पर भी सबसे ज्यादा ध्यान देना होगा, जिसमें प्रतिद्वंदी दल भाजपा की ‘मनोवैज्ञानिक’ महारथ है। कांग्रेस के पास 15 साल पहले कार्यकर्ताओं की जो फ़ौज हुआ करती थी, उसमें उत्साह भरकर फिर सक्रिय करना बड़ी चुनौती है। जिनमें मोहल्ले-मोहल्ले युवाओं की संख्या भी हो, जो मतदाताओं के घर-घर जाकर उन्हें यह विश्वास दिला सकें कि कांग्रेस मजबूत विकल्प के तौर पर सामने है। इस चुनाव में कांग्रेस सिर्फ ‘कमबैक’ नहीं कर रही, बल्कि ‘आंधी’ की तरह सत्ता में आने वाली है। कांग्रेस को बीजेपी शासन की 15 साल की विफलताओं को घर-घर पहुंचाने की कला सीखनी होगी।
प्रदेश के कांग्रेस नेताओं को अखबारों के किसी कोने में ‘बुलबुले’ की तरह छपने वाले बयान देने या पीसीसी के बाहर ‘औपचारिक’ प्रदर्शन करने के रिवाज से भी मुक्त होना पड़ेगा। सवाल यह है ये रोष प्रदर्शन अपने ही दफ्तर के बाहर क्यों ? सरकार की नीतियों, कुशासन या भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा प्रकट करना हैं तो मोहल्लों या चौराहों पर जाकर करें। तब हो सकता है, नोटा का वोट भी कांग्रेस को मिल जाए ?

‘नोटा’ का जिक्र इसलिए, क्योंकि कांग्रेस को सोचना होगा कि सत्ता विरोधी वोट आखिर उसे मिलने की बजाय नोटा को क्यों चला जाता है ? 2013 के चुनाव में अस्तित्व में आया नोटा क्यों तीसरा दल बनता जा रहा है ? मेरी राय में नोटा दरअसल ‘ सत्तारूढ़ दल का ही ‘बैकडोर फ्रैंड’ है। ऐसा मित्र जो विपक्ष यदि कमजोर है तो उसे रोकता है और अप्रत्यक्ष तौर पर सत्ता के उम्मीदवारों को जिताने में मदद करता है। नोटा एक विकल्प नहीं, बल्कि विपक्ष के खिलाफ लोकतंत्र में एक बड़ी रुकावट है। या तो ईवीएम से नोटा का बटन हटा देना चाहिए, या फिर उसे इतना ताकतवर बना देना चाहिए कि उम्मीदवार पसंद नहीं आने पर वह चुनाव रद्द करा सके। नोटा और सत्तारूढ़ दल की इस ‘नूराकुश्ती’ को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। छत्तीसगढ़ का ही उदाहरण ले लें। पड़ोसी राज्य में भाजपा को पिछले चुनाव में 53.4 लाख वोट मिले, जो कुल वैध मतों का 41.4 प्रतिशत था। कांग्रेस को 40.29 प्रतिशत यानि 52.44 लाख वोट मिले। यानी दोनों दलों के बीच का अंतर एक प्रतिशत से भी कम रहा। लेकिन, नोटा को 3 प्रतिशत वोट मिले। यानी, सत्तारूढ़ दल को बेदखल करने की बजाय यह ढाल बन गया।

मध्यप्रदेश में भी पौने दो फीसदी मतदाताओं यानी छह लाख बीस हजार ने किसी को भी वोट के योग्‍य नहीं माना। इन मतदाताओं ने सत्ता के खिलाफ अपनी नाराजगी का वोट विपक्ष को देने की बजाय नोटा को दिया। 2008 में भाजपा को कुल मतों के 37.64 प्रतिशत यानी 94 लाख 93641 वोट मिले थे। जबकि 2013 के चुनाव में उसे पिछले चुनाव की तुलना में 60 फीसदी ज्यादा यानी एक करोड़ 51 लाख 89894 मत प्राप्त हुए। जो कुल मतों का 44.67 प्रतिशत है। भाजपा को कुल मतों के हिसाब से 7.23 प्रतिशत का लाभ हुआ और उसकी सीटें भी 143 की तुलना में 22 बढ़कर 165 हो गईं। कांग्रेस को भी वोटों का फायदा हुआ। लेकिन, आनुपातिक रूप से भाजपा से कम रहने के कारण उसे पिछली बार की 71 सीटों की तुलना में 13 सीटें गंवानी पड़ीं। कांग्रेस को वर्ष 2008 में कुल मतों के 32.39 प्रतिशत यानी 81 लाख 70318 वोट मिले थे। लेकिन 2013 के चुनाव में उसे पिछली बार के मुकाबले 50.7 फीसदी ज्यादा यानी एक करोड़ 23 लाख 14196 वोट मिले। कुल मतों के हिसाब से उसे 36.38 प्रतिशत वोट मिले, जो पिछले चुनाव की तुलना में 3.99 फीसदी ज्यादा है।

जबकि, नोटा ने कांग्रेस के आधा दर्जन से ज्‍यादा उम्‍मीदवारों को जीतते-जीतते हरा दिया। मसलन, ग्‍वालियर-पूर्व विधानसभा सीट से भाजपा की माया सिंह 1147 मतों से जीतीं। यहां 2112 वोटरों ने नोटा का इस्तेमाल किया, इनमे से आधे वोट भी कांग्रेस उम्‍मीदवार को मिलते तो परिणाम बदल जाता। यही हाल सुरखी विधानसभा क्षेत्र में हुआ। यहां कांग्रेस के गोविंद सिंह 141 वोटों से हारे जबकि नोटा बटन दबाने वालों की संख्‍या 1550 थी।
देखा जाए तो 2008 और 2013 के चुनाव में भी भाजपा के खिलाफ एंटी इनकंवेंसी थी। डंपर और व्यापमं जैसे बड़े मुद्दे सरकार को हिलाने के लिए काफी थे। बावजूद इसके कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं के गढ़ में

पार्टी खास प्रदर्शन नहीं कर पाई। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के प्रभाव वाले जिले राजगढ़ की पांच में चार सीटों पर भाजपा सफल रही। हां, उनके पुत्र जयवर्धन जरूर चुनाव जीतने में सफल रहे। ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया भी अपने प्रभाव के क्षेत्र ग्‍वालियर-चंबल संभाग में पार्टी को करीब एक-तिहाई के आसपास सीटें जिता पाए। यहां 34 सीटों में कांग्रेस को महज 12 सीटों पर जीत मिली। जबकि कांग्रेस को इस क्षेत्र से बड़ा भरोसा था। यहां से भाजपा को सात सीटें ज्यादा मिली।

कांग्रेस के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ का किला कहे जाने वाले महाकौशल में सेंध लग गई। भाजपा को यहां 24 और कांग्रेस को 13 सीटें मिलीं। तब के प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के संसदीय क्षेत्र झाबुआ में तो कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने जरूर कांग्रेस की लाज रखी। उनके क्षेत्र विंध्‍य में कांग्रेस पिछली बार के मकाबले मजबूत बनकर उभरी। विंध्‍य में कांग्रेस को 30 में महज दो सीटें मिली थीं, जबकि 2013 में उसे यहां 12 सीटें मिली।

वैसे, कांग्रेस के सामने इस गणित को सुधारने का पहले से ज्यादा बेहतर अवसर है। लेकिन ‘कंडीशन एप्लाई’ है। फिलहाल कांग्रेस के बड़े नेता कुछ संभले हुए नजर आ रहे हैं। दिग्विजय सिंह यदि पुराने कार्यकर्ताओं को एकजुट करने निकल रहे हैं, कमलनाथ स्वच्छ शासन देने का विश्वास दिला रहे हैं और ज्योतिरादित्य सिंधिया परिवर्तन रैलियां निकाल रहे हैं तो इसे एक अच्छी कोशिश कह सकते हैं। लेकिन, सही मायने में फाइनल मैच बूथ मैनेजमेंट की ‘पिच’ पर खेला जाना है। ये पिच 2019 के ‘बड़े संग्राम’ का अक्स भी होगा।