संसदीय प्रणाली मैं संख्या बल ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।संख्या के आधार पर ही न केवल सरकार का गठन होता है,अपितु सदन में होने वाली प्रत्येक प्रक्रिया,चाहे वह वित्तीय कार्य हो अथवा विधिक कार्य,या सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करना हो, आशय यह कि संसदीय प्रणाली का मूलाधार किसी राजनीतिक दल में सदस्यों की संख्या है। सभा में प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमों के अंतर्गत किसी प्रस्ताव या किसी विषय का प्रस्तुत किया जाना अथवा उसका पारित होना अथवा स्वीकृत होना इसी बात पर निर्भर होता है कि उस प्रस्ताव अथवा किसी भी विषय के पक्ष अथवा विपक्ष में कितने सदस्य हैं और इस सदस्य संख्या के आधार पर ही अध्यक्ष यह निर्णय करते हैं कि कोई प्रस्ताव अथवा कोई विषय सभा के द्वारा स्वीकृत हुआ अथवा नहीं ?

सभा में प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमों के अंतर्गत ऐसे अनेक विषय होते हैं जब किसी प्रस्ताव के अथवा किसी विषय के बहुमत के द्वारा स्वीकृत ना होने की स्थिति में सरकारें अपदस्थ भी हो सकती है।यही कारण है कि सत्ता पक्ष और प्रति पक्ष सदन में यह प्रयास करते हैं कि उनके समस्त सदस्य ऐसे मतदान के अवसर पर सभा में उपस्थित रहे ताकि मतदान के दौरान किसी भी पक्ष को अप्रिय स्थिति का सामना नहीं करना पड़े, विशेष कर सत्ताधारी दल को।
हमारे देश की राजनीति में साठ के दशक में दल बदल के ऐसे एकाधिक मामले हुए जब सदस्यों द्वारा अन्यान्य कारणों से जिसमें मुख्य रुप से स्वयं को लाभान्वित करना रहा सभा में अपने दल अर्थात जिस दल की विचारधारा एवं प्रत्याशी के रूप में वे निर्वाचित हुए हैं,के विरुद्ध मतदान करने के कारण जनादेश द्वारा चुनी हुई,सरकारें अपदस्थ हुई।

सदस्यों द्वारा इस प्रकार एक दल से दूसरे दल में जाने वापस आने के दिन प्रतिदिन होने वाले,प्रजातांत्रिक एवं संसदीय प्रणाली के विरुद्ध आचरण को रोकने,और जनादेश प्राप्त सरकारों को अपदस्थ करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए के लिए वर्ष 1985 में संविधान को संशोधित करते हुए दसवीं अनु सूची सम्मिलित की गई जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में दल बदल कानून कहते हैं।

दल बदल को रोकने हेतु दल बदल कानून में जो अन्य दूसरे प्रावधान किए गए, उनके साथ ही पैरा दो दल परिवर्तन के आधार पर निरर्हरता(disqualification on ground of defection)पेरा(1)(ख) मैं यह प्रावधान किया गया कि यदि कोई सदस्य जिस राजनीतिक दल का सदस्य है उसके द्वारा अथवा दल द्वारा प्राधिकृत किसी व्यक्ति या प्राधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी ने ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने की तारीख से 15 दिन के भीतर माफ नहीं किया है तो उसे दल बदल कानून के पैरा(1) (ख)के अंतर्गत सदस्यता से निर्रहरित(disqualify) किया जा सकेगा।

सभा की कार्यवाही के दौरान जब सभा विभिन्न कार्यों का संपादन करती है कार्य संपादन के समय/ चर्चा के समय राजनीतिक दलों के सदस्य उपस्थित रहे इस उद्देश्य से राजनीतिक दलों द्वारा उनके दल के वरिष्ठ विधायकों में से chief whip नियुक्त किए जाते हैं।और उनकी सहायता के लिए यदि आवश्यक हो तो एक अथवा एक से अधिक विधायकों को राजनीतिक दलों द्वारा whip नियुक्त किया जाता है.

Whip(सचेतक) का मुख्य कार्य होता है कि वह अपने दल के सदस्यों की उपस्थिति सदन में अथवा सदन के आसपास ही सुनिश्चित करें ताकि अचानक सभा में होने वाले मतदान के समय,मतदान में उस राजनीतिक दल के सभी सदस्य हिस्सा ले सकें और ऐसी अप्रिय स्थिति निर्मित ना हो कि सत्ताधारी दल का कोई प्रस्ताव पारित ही ना हो सके क्योंकि ऐसी स्थिति सत्ताधारी दल के लिए शर्मनाक मानी जाती है,और कुछ मामलों में सरकारें अपदस्थ भी हो जाती हैं।

वर्ष 1985 में संविधान में दसवीं अनु सूची का समावेश किया गया जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में दल बदल कानून भी कहा जाता है और दल बदल कानून में किसी राजनीतिक दल द्वारा जारी व्हिप के संबंध में भी कुछ प्रावधान किए गए।

दल परिवर्तन के आधार पर निर्रहरता(disqualification) के संबंध में पैरा दो ध्यान देने योग्य है।पैरा(2) के अनुसार कोई सदस्य सदन का सदस्य होने के लिए डिसक्वालीफाई होगा यदि वह ऐसे राजनीतिक दल जिसका वह सदस्य है अथवा उसके द्वारा निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति या प्राधिकारी द्वारा दिए गए किसी ने निदेश के विरुद्ध ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है, और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी ने ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने की तारीख से 15 दिन के भीतर माफ नहीं किया है तो ऐसा समझा जाएगा कि वह ऐसे राजनीतिक दल का,यदि कोई हो सदस्य है,और निर्वाचन के लिए अभ्यर्थी के रूप में खड़ा किया था,सदस्य बने रहने के लिए अयोग्य हो गया है।

उपरोक्त से यह संदेह रहित है, कि whip का प्रयोग केवल और केवल सभा से संबंधित कार्यों के लिए ही होता है किसी राजनीतिक दल के अंदर होने वाली दिन प्रतिदिन की कार्यवाही या घटनाएँ आदि के संबंध में यदि व्हिप जारी की भी जाती है तो वह प्रभावी नहीं होती और उसे दसवीं अनु सूची के अंतर्गत जारी की गई नहीं मानी जा सकती।वह दल के अंदर अनुशासन बनाए रखने संबंधी पत्राचार की श्रेणी में ही आता है।

विगत कुछ वर्षों में राजनीतिक दलों के मध्य सत्ता प्राप्त करने के लिए संसदीय प्रक्रियाओं के अलावा अन्य तरीके इजाद करते हुए जो प्रयास किए जा रहे हैं वस्तुतः इन्हीं के कारण राजनीतिक दलों द्वारा दसवीं अनु सूची के अंतर्गत प्रावधान का पालन नहीं करने पर अयोग्यता जैसे प्रावधानों का प्रयोग भी सदस्यों को अनुशासित रखने, और लोभ,लालच के कारण अन्य दलों में जाने से रोकने के लिए किया जाने लगा है।क्योंकि यदि कोई सदस्य whip का उल्लंघन करता है अर्थात whip को नहीं मानता है तो उसे अपनी सदस्यता से हाथ धोना पड़ सकता है।किंतु जैसा पूर्व पैरा में उल्लेख किया है यह केवल दल के अंदर अनुशासन बनाए रखने संबंधी पत्राचार की श्रेणी में ही आता है।
वस्तुतः अध्यक्ष व्हिप जारी करने हेतु प्राधिकृत व्यक्ति नहीं रहता बल्कि प्रत्येक राजनीतिक दल अर्थात विधायक दल का मुख्य सचेतक/सचेतक(Chief Whip/whip) ही व्हिप जारी करने के लिए अधिकृत रहता है।Whip सभा से संबंधित कार्यों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों की बैठकों में जिसमें विधायक दल की बैठक भी सम्मिलित है,यदि जारी की भी जाती है, और यदि कोई सदस्य उसका पालन नहीं करता है अथवा whip के अनुरूप व्यवहार नहीं करता है ऐसी स्थिति में दल बदल कानून के अंतर्गत उस पर किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं की जा सकती, अपितु दल में अनुशासन के आधार पर राजनीतिक दल यथा आवश्यक कार्यवाही कर सकता है।

यह अवश्य है कि,यदि किसी राजनीतिक दल के सदस्य द्वारा दल-बदल कानून के अंतर्गत किसी प्रकार की अर्जी अध्यक्ष को प्राप्त होती है, तब अर्जी पर निर्णय करने के पूर्व,यदि अध्यक्ष आवश्यक समझे,जिन सदस्यों के विरुद्ध अर्जी प्राप्त हुई है उनसे वस्तु स्थिति ज्ञात करने के लिए नोटिस जारी कर सकते हैं।

संसदीय प्रणाली में अध्यक्ष का पद विधायिका का सर्वोच्च पद है,वह सभा एवं इसके सदस्यों के अधिकारों एवं विशेष अधिकारों का संरक्षक है,और सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अध्यक्ष के पद का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा कायम रखें। क्योंकि सदस्यों का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा भी अध्यक्ष की प्रतिष्ठा में समाहित है।यदि अध्यक्ष ने किसी प्रकार का कोई नोटिस जारी भी किया है तो सदस्यों का यह दायित्व है कि वह उस नोटिस का जवाब अध्यक्ष को दे।
विगत वर्षों में यह देखने में आ रहा है कि प्रत्येक मामलों में राजनीतिक दलों के सदस्य न्यायालय में जा रहे हैं और न्यायालय सभा की कार्यवाही किस प्रकार से संचालित हो बैठक कब हो और कब नहीं हो, बैठकों में क्या-क्या व्यवस्थाएं की जाए और मतदान कैसे हो, आदि निर्देश भी न्यायालय के द्वारा जारी किए गए हैं।राजनीतिक दलों एवं इसके सदस्यों के इस प्रकार के कार्य व्यवहार से विधायिका की प्रतिष्ठा जन साधारण के दिलो-दिमाग में दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है।

जिस प्रकार न्यायालय से किसी भी व्यक्ति को उनके विरुद्ध दायर किसी पिटीशन पर उत्तर देने हेतु सूचना प्राप्त होती है और न्यायालय का सम्मान करते हुए उस सूचना पर प्रति उत्तर निर्धारित अवधि में प्रत्येक नागरिक प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार यदि सदस्यों को अध्यक्ष से किसी प्रकार का कोई नोटिस प्राप्त होता है तब सदस्यों का भी यह दायित्व है,वे अध्यक्ष के पद का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा के प्रति निष्ठा एवं विश्वास का भाव रखते हुए प्राप्त नोटिस का प्रति उत्तर अध्यक्ष को दें और इसी में न केवल विधायिका की अपितु विधायिका के प्रत्येक पदाधिकारी और सदस्यों की प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान अक्षुण्ण बना रहेगा।

आलेख- देवेंद्र वर्मा, पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा संसदीय एवं संविधानिक विशेषज्ञ