आपातकाल आजाद भारत के इतिहास का काला अध्याय है. आपातकाल का नाम से दिमाग में उभरने वाली श्वेत-श्याम तस्वीरों में सबसे ज्यादा झकझोरने वाली तस्वीर लोकनायक कहलाने वाले जय प्रकाश नारायण की हैं. बिहार से जुड़े ‘जेपी’ ही वो शख्स थे, जिनकी वजह से इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल और सेंसरशिप के हवाले कर दिया. नागरिकों से उनके अधिकार छीन लिए. राजनीतिक विरोधियों को जेलों में ठूंस दिया.

72 साल के बुजुर्ग समाजवादी, सर्वोदयी नेता लोकनायक जय प्रकाश नारायण के पीछे देशभर के छात्र और युवा महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी की वजह से लामबंद होने लगे थे. बिहार की धरती से सुलग रही आग की तपिश दिल्ली तक महसूस होने लगी, जिसकी वजह से केंद्र की सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी की सरकार को भी अंदर तक झकझोर कर रख दिया.

अभी सरकार इस सदमे को दूर से देख इससे उबरने के तरीके ही तलाश रही थी, तभी इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 12 जून, 1975 को समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर इंदिरा गांधी के संसदीय चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने 24 जून को हाई कोर्ट के फैसले पर मुहर लगाकर इंदिरा गांधी के छह साल तक चुनाव लड़ने अयोग्य करार दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी. 12 जून, 1975 के इस फैसले में इंदिरा गांधी के संसदीय चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया था. उन्होंने रायबरेली से इंदिरा के लोकसभा चुनाव को चुनौती देने वाली समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर ये फैसला सुनाया था. इंदिरा की लोकसभा सदस्यता तो रद्द की ही गई, साथ ही छह साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया. अब 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इसी फैसला पर मुहर लगा दी थी. हालांकि इंदिरा को प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दे दी. वो लोकसभा में जा तो सकती थीं. लेकिन वोट नहीं दे सकती थीं.

इंदिरा गांधी के लिए यह फैसला बड़ा झटका था. इस फैसले के एक दिन बाद ही 25 जून को विपक्ष के सबसे बड़े नेता जय प्रकाश नारायण यानी ‘जेपी’ ने अनिश्चितकालीन देशव्यापी आंदोलन का आह्वान कर दिया. उन्होंने दिल्ली के रामलीला मैदान में कवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्तियां ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.’ का पाठ युवाओं में जोश भर दिया. उन्होंने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए इस्तीफे की मांग रख दी. इसके साथ ही देश की सेना और पुलिस से अपनी ड्यूटी निभाते हुए सरकार से असहयोग करने का आह्वान किया.

इस आह्वान ने इंदिरा गांधी को इतना हिला दिया कि उन्होंने बिना कोई वक्त गंवाएं ऐसे फैसला लिया, जिसे आज भी लोग देश का काला अध्याय करार देते हैं. 26 जून 1975, गुरुवार की सुबह लोगों की नींद खुली तो रेडियो पर आने वाली आवाज़ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की थी. संदेश में इंदिरा ने कहा, ‘भाइयों, बहनों… राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. आपातकाल जरूरी हो गया था. एक ‘जना’ सेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है. इसलिए देश की एकता और अखंडता के लिए यह फैसला ज़रूरी हो गया था. लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है.’

साल 1975 में आपातकाल का दौर देखने वाले बताते हैं कि रेडियो पर जैसे ही यह संदेश ख़त्म हुआ वैसे ही हाहाकार मचना शुरू हो गया. इस ऐलान के बाद देश में सरकार की आलोचना करने वालों को जेलों में ठूंसा जाने लगा. लिखने, बोलने यहां तक कि सरकार के खिलाफ होने वाले विचारों तक पर पाबंदी लगा दी गई. आपातकाल के दिनों में इंडियन एक्सप्रेस अखबार में एक दिन संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी गई थी. लिखने वाले ने कुछ नहीं लिख कर पढ़ने वाले को पढ़ा दिया था कि अब लिखने पर पहरा है.