संजीव शर्मा, कोंडागांव। ये तस्वरी कोंडागांव जिले के मसोरा गांव की है, जहां हरियाली अमावस्या के दिन बच्चों को लोहे की गर्म सलाखों से दागा जा रहा है. ग्रामीणों का मानना है कि इससे बीमारियां ठीक होती है. बच्चों के अलावा बड़ों के साथ भी ऐसा किया जाता है, जिसमें उन्हें असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ता है, यही नहीं जिस्म पर जीवनभर के लिए छाप पड़ जाता है.

बस्तर में लगातार बढ़ रही चिकित्सा सुविधाओं के बावजूद पुरानी जान को जोखिम में डालने वाली परंपराएं अपना वजूद बरकरार रखे हुए हैं. आदिवासी बहुल इलाके में लोगों को नाभी के आसपास, गले में और पेरों पर लोहे की लाल गर्म सलाखें से दागकर इलाज करने की परंपरा वर्षों पुरानी है. यह मान्यता अब भी गांवों में फेली हुई है. यहां तक बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी इस इलाज को मान्यता देते हैं.

जिले में आज 21 विशेषज्ञ डाॅक्टर अपनी सेवाएं दे रहे हैं. हर बीमारी के इलाज के लिए एक से एक अत्याधुनिक मशीनें मौजूद हैं. यहां तक बहुत जरूरी हो तब मरीजों को रायपुर भी रेफर सरकारी खर्च पर भेजा जाता है. लेकिन इन सबके बावजूद कष्टकारी परंपरा के जारी रहने से बात स्पष्ट है कि लोगों को इस विषय में जागरूक किया जाए, जिससे पारंपरिक और अवैज्ञानिक तरीके से उपचार कराने की बजाए वैज्ञानिक और सिद्ध पद्धति से अपना और परिजनों का इलाज कराएं.

बीएमओ डॉ. सूरज राठौर ने दागने से गंभीर हुए लोग अस्पताल पहुंचते है. वे कहते हैं कि इस सिद्धांत पर गर्म लोहे से दागने की परंपरा बड़ा दर्द छोटे दर्द को दबा देता है, इस सिद्धांत पर काम करती है. लोगों को थोड़े समय के लिए लगता है दर्द दूर हो गया, लेकिन इससे मरीज की समस्या ओर भी बढ़ जाती है. आदिवासी क्षेत्र के गांवों से हर साल 15 से 20 मरीज ऐसे आते हैं, जो गर्म लोहे की सलाखें के दागने से गंभीर स्थिति में पहुंच चुके होते हैं.