रायपुर-भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ी कसौटी आम चुनाव को ही माना जाता है, जहां राजनीतिक दल और प्रत्याशियों को अपनी नीतियों एवं मुद्दों के द्वारा जनता के बीच पहुंचना होता है। ऐसे मतदान को लोकतंत्र का महापर्व कहने से भी हम नहीं चुकते। इस लिहाज से मतदान अब प्रमुखत दो चरणों में बचा है। इसी दौरान देश में भीषण चक्रवात का प्रवेश हो गया है, फेनी नाम का। यह सुपर साईक्लोन उडीसा, पश्चिम बंगाल तथा आन्ध्रप्रदेश सहित कई राज्यों में तबाही मचाया है बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हुए हैं, लाखों की आबादी को सुरक्षित स्थानों में लाया गया है। इसमें मरने वालों की संख्या में बढोत्तरी हो रही है। इसके अलावा चंद दिन पहले ‘पष्चिमी विक्षोभ और ‘हिटवेव’ से तेज आंधी-पानी ओले गिरने के अलग रिकार्ड बने है। लेकिन इसके बावजूद चुनावी रैलियों में इस मुद्दे पर प्रभावी संवाद नहीं हो पा रहा है और न ही राजनीतिक विमर्श में जलवायु संकट के व्यापक प्रभाव पर चर्चा के साथ समाधानकारक दृष्टि बन पा रहा है, जबकि इसका दूरगामी असर समूचे जन-जीवन और राष्ट्र जीवन पर पड़ने वाला है।
जलवायु संकट को राजनीतिक एजेण्डा के तौर पर सर्वग्राही बनाया जाना कितना जरूरी है, इस पर तर्क की कतई गुंजाईश नहीं है, किन्तु चुनाव अभियान के शेष दिनों में ऐसे सर्वव्यापी मुद्दे पर संवेदनशीलता नजर आनी चाहिए। इसको लेकर ही वैश्विक परिदृश्य पर एक नजर डालते हुए राष्ट्रीय-परिप्रेक्ष्य में कुछ घटनाकमों की चर्चा इस आलेख में है ताकि नये भारत की रचना में जलवायु संकट का विषय शास्वत बन जाये।
दुनियाभर में इन दिनों ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा है। जलवायु परिवर्तन के कारण धरती जिस तरह गर्म हो रही है, उससे वैज्ञानिक चिंतित है। हालाकि इन सबके बीच आम लोगों के बीच एक और भी सवाल उठ रहा है। सवाल यह है कि अगर धरती इतनी गर्म होती जा रही है, तो मौसम इतना सर्द बयों : आम लोग ही नहीं अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मन में भी यह सवाल उठा है। उन्होंने ट्वीट करके सवाल उठाया, -आखिर ग्लोबल कहां गई,सवाल उठना लाजमी है ।
दुनिया के बड़े हिस्से में इस समय ठंड का प्रकोप है। अमेरिका के कुछ हिस्से ऐसे भी हैं, जहां तापमान शून्य से भी 50 डिग्री नीचे चला गया है। बर्फबारी का दौर भी जारी है। भारत के भी पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी हो रही है। कई स्थानों पर तापमान शून्य के नीचे पहुंच रहा है। इस सर्द मौसम में मन में यह साल आना लाजिमी है कि आखिर ग्लोबल वार्मिंग का असर कहां है. अगर ग्लोबल वार्मिंग वाकई समस्या है तो फिर इस भीषण सर्दी का कारण वया है :
ग्लोबल वार्मिंग इस सर्दी को कुछ गर्म क्यों नहीं कर पा रही है? जलवायु और मौसम को समझना जरूरी है। इस बात को समझने के लिए इन जलवायु और मौसम का अंतर जानना होगा। लंबी अवधि में वातावरण की स्थिति को जलवायु कहा जाता है। वहीं किसी छोटी अवधि में वातावरण में जो हो रहा है, उसे नौसम कहा जाता है। मौसम निश्चित अंतराल पर बदलता रहता है। कुछ ही महीने के अंतराल पर आने वाले सर्दी और गनी के मौसम में बहुत बड़ा फर्क होता है। वही जलवायु वातावरण का एक समग्र रूप है।
मोसन और जलवायु को नये सिरे से परिभाषित किया गया है, वयोंकि इसमें ‘बटुए और संपत्ति जैसा फर्क है :- इस बात को आसान भाषा में ऐसे भी समझा जा सकता है कि मौसम आपके बटुए में रखे पैसे जैसा है। यहीं जलवायु आपकी संपत्ति है। बटुआ खो जाए तो कोई गरीब नहीं हो जाता, लेकिन संपत्ति नष्ट हो जाए तो व्यक्ति बर्बाद हो सकता है। जलवायु और मौसम का भी ऐसा ही संबंध है। जिस दिन आपके आसपास का तापमान औसत से कम होता है, ठीक उसी समय पूरी धरती का औसत तापमान सामान्य से अधिक भी हो सकता है।
दिल्ली में चुनावी माहौल के बीच एक एनजीओं ने शुक्रवार को एक वलाईमेट संवाद का आयोजन किया, जिसमें शहर के नागरिकों ने राजनीतिक दलों से वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर जनसरोकार के मुद्दे को चुनावी मुद्दा बनाने की अपील की। कर्पूरी कैम्प, श्रीनिवासपुरी में आयोजित इस संवाद में विभिन्न नागरिक संगठनों और स्थानीय समुदाय के लोगों ने हिस्सा लिया। इसी वर्ष मार्च में ग्रीनपीस और एयर विजुअल की संयुवत रिपोर्ट में विश्व की सबसे प्रदूषित राजधानियों की सूची में दिल्ली पहले नंबर पर था। प्रदूषण और व्यापक जलवायु परिवर्तन की ये गंभीर चुनौतियां दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है।
कार्यक्रम में एक ग्रीन चार्टर जारी किया गया जिसमें स्वच्छ ऊर्जा, साफ हवा, सुरक्षित भोजन और प्लास्टिक मुक्त भारत बनाने की मांग की गयी है। लोगों ने जलवायु परिवर्तन पर चिंता जाहिर करते हुए मांग की कि आने वाली नई सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी नीतियां, योजनाएँ और कार्यक्रम पृथ्यी के साथ-साथ सभी भारतवासियों के जीवन आजीविका एवं स्वास्थ्य की सुरक्षा को सुनिश्चित करें।
भारत के ज्यादातर राज्य जलवायु परिवर्तन की वजह से वायु प्रदूषण, जल संकट, सूखा, बाढ़, मौसम में बदलाय जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है, देश के बच्चे और युवा महसूस कर रहे हैं कि भारत को जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों के लिये विकसित देशों की तरफ ताकना बंद करना होगा और हमें स्वच्छ हवा , पानी मिट्टी को बचाने के लिये तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।
2019 के लोकसभा चुनाव नाजुक दौर में हैं और सभी सियासी दल मतदाताओं की नब्ज टटोलने और उसके मुताबिक अपनी चुनायी मैदान में मशगुल है, चूंकि देश का राजनीतिक माहोल धर्म, जाति, गरीबी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों की गिरफ्त में है इसलिए देश की राजनीति भी इन्हीं के इर्द-गिर्द घूम रही है। आजादी के बाद से अब तक कमोबेश सभी सियासी दल कुछ तयशुदा एजंडों को लेकर ही आगे बढ़ते रहे हैं। और इस वजह से जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक तपन से जुड़े मुद्दों को अवसर अनदेखा किया जाता रहा है.
2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि वह दिल्ली में प्रवेश करने वाले वाहनों से पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति शुल्क वसूल करें। इससे वसूल हुई राशि का दिल्ली के वायु प्रदूषण को (नई तकनीकों के प्रयोग से) कम करने में इस्तेमाल होना था। सूचना का अधिकार के तहत मिली जानकारी बताती है कि इस शुल्क के जरिए मिलों 700 करोड़ रूपयों को सही जगह पर इस्तेमाल करने में दिल्ली सरकार पूरी तरह से नाकाम रही है। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से किसी को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। । दूसरे शहरों के तजुर्वे भी कोई खास हौसला बंधाने वाले नहीं है। बैंगलुरू में पानी की प्राथमिक स्त्रोत पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी है, लेकिन इस पर अब तक ढंग का कोई सार्वजनिक विरोध आयोजित नहीं किया गया है। इसी तरह हैदराबाद की हुसैन सागर झील और अन्य शहरों के महत्वपूर्ण स्त्रोत भी गंभीर पर्यावरणीय हास झेल रहे हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ओर डां दुनिया भर के कई मुल्क पर्यावरण से जुड़े कई अहम कदम उठा रहे हैं वहीं भारत जलवायु परिवर्तन से निजात पाने के लिए कोई खास संजीदगी नहीं दिखा रहा। हमारे देश से बाहर पिछले कुछ सालों में पर्यावरण सुरक्षा के मसलों को उठाने वाले कुछ राजनीतिक समूह देखने को मिल रहे हैं. इनमें से सबसे कामयाब उदाहरण डच राईट पार्टी का है। इसका गठन 1989 में परंपरागत लेफ्ट पार्टियों के विलय से हुआ और तभी से यह पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को मुख्यधारा की राजनीति में लाने के प्रयास करती रही है।